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विवेकचूडामणिः ।
जिस मनुष्यने ब्रह्मतत्त्वको जान लिया है उस पुरुषको पूर्वकाल सदृश फिर संसार संभावना नहीं होती यदि वह ब्रह्मज्ञानी पुरुष बहिर्मुख न हो अर्थात् फिर चित्तको बाह्यविषयमें आसक्त न करे तो ॥ ४४३ ॥ प्राचीनवासनावेगा दसौ संसरतीति चेत् । न सदेकत्वविज्ञानान्मन्दीभवति वासना ॥ ४४४ ॥ यदि कहो कि प्राचीन वासनाका वेगसे ब्रह्मज्ञानी पुरुषकी भी संसार प्राप्त होता है सो न कहो क्योंकि सद् ब्रह्मज्ञानका एकत्व ज्ञान होनेसे वासना क्षीण होजाती है ॥ ४४४ ॥ अत्यन्तकामुकस्यापि वृत्तिः कुण्ठति मातरि । तथैव ब्रह्माणि ज्ञाते पूर्णानन्दे मनीषिणः ॥ ४४५ ॥ जैसे अत्यन्त कामुक पुरुषकी भी कामचेष्टा मातामें कुण्ठित होजाती है तैसे पूर्णानन्द ब्रह्मका ज्ञान होनेपर विद्वानोंकी पूर्ववासना कुण्ठित हो जाती है ॥ ४४५ ॥ निदिध्यासनशीलस्य बाह्यप्रत्यय ईक्ष्यते । ब्रवीति श्रुतिरेतस्य प्रारब्धं फलदर्शनात् ॥ ४४६ ॥ प्रारब्धकर्म के फल देखनेसे ज्ञात होता है और श्रुतिभी कहती है कि निदिध्यासनशील अर्थात् आत्मवस्तुके विचार करनेवाला यति पुरुषके अंतःकरण में बाह्यपदार्थ की प्रतीति बनी रहती है ॥ ४४६ ॥ सुखाद्यनुभवो यावत्तावत्प्रारब्धमिष्यते । फलोदयक्रियापूर्वो निष्क्रियो न हि कुत्रचित् ४४७ जबतक सुखका अनुभव रहता है तबतक प्रारब्धकर्म बना रहता है। पूर्व में क्रिया करनेसे तो फलका उदय होता है विना किया के फलसिद्धि नहीं होती ॥ ४४७ ॥
अहं ब्रह्मेति विज्ञानात्कल्पकोटिशतार्जितम् । संचितं विलयं याति प्रबोधात्स्वप्रकर्मवत् ॥४४८ ॥