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विवेकचूडामणिः ।
अजरममरमस्त। भाववस्तुस्वरूपं स्तिमितसलि लराशि प्रख्यमाख्याविहीनम् । शमितगुणविकारं शाश्वतं शान्तमेकं हृदि कलयति विद्वान् ब्रह्मपूर्ण समाधौ ॥ ४११ ॥
अजर और अमर नाशसे रहित वस्तुस्वरूप निश्चल जलसमूहके सदृश गम्भीर नामसे रहित गुण और विकारसे शून्य भूत भविष्य वर्त्तमान इन तीनों कालोंमें सदा वर्त्तमान शान्तस्वरूप अद्वितीय ऐसे परिपूर्ण परब्रह्मको विद्वान् लोग सदा समाधिमें ध्यान करते हैं ॥ ४११ ॥ समाहितान्तःकरणः स्वरूपे विलोकयात्मानमखण्डवैभवम् । विच्छिन्धि बन्धं भवगन्धगन्धितं यत्त्वेन पुंस्त्वं सफली कुरुष्व ॥ ४१२ ॥
अपने अन्तः करणको सावधानता से आत्मस्वरूपमें स्थिर रक्खों और अखण्ड विभवयुक्त परमात्माको सदा अवलोकन किया करो तथा संसारके गन्धसे युक्त बन्धनको छेदन करो और बडे पुण्यसे' पुरुषका शरीर प्राप्त हुआ है इस शरीरको ज्ञान सम्पादन करि सफल करो ॥ ४१२ ॥ सर्वोपाधिविनिर्मुक्तं सच्चिदानन्दमद्रयम् । भावयात्मानमात्मस्थं न भूयः कल्पसेऽध्वने ४१३॥
हे विद्वन् ! सम्पूर्ण उपाधिसे विनिर्मुक्त सच्चिदानन्द अद्वितीय शरीरस्थ आत्माको विचार किया करो जिससे फिर जन्म मरण क्लेश मार्गको तुम्हें नहीं भोगना पडेगा ॥ ४१३ ॥ छायेव पुंसः परिदृश्यमानमाभासरूपेण फलानुभूत्या । शरीरमाराच्छववन्निरस्तं पुनर्न संधत्त इदं महात्मा || ४१४ ॥