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भाषाटीकासमेतः ।
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अतएव विरक्त पुरुष मोक्षकी इच्छासे अन्तरीय संग और बाह्य संग दोनोंको सुखसे त्याग करते हैं ॥ ३७३ ॥
बहिस्तु विषयैः संगं तथान्तरहमादिभिः । विरक्त एव शक्नोति त्यक्तुं ब्रह्मणि निष्ठितः ॥ ३७४ ॥ विषयों के साथ जो इन्द्रियोंका बाह्यसंग है और अहंकार आदिके साथ जो आन्तरीय संगहै इन दोनों संगोंको ब्रह्मनिष्ठ जो विरक्त है बही त्याग करने में समर्थ हो सक्ता है || ३७४ ॥
वैराग्यarat पुरुषस्य पक्षिवत्पक्षौ विजानीहि विचक्षणत्वम् । विमुक्तिसौधाग्रलताधिरोहणं ताभ्यां विना नान्यतरेण सिद्ध्यति ॥ ३७५ ॥ श्रीशंकराचार्यजी अपने शिष्यसे कहते हैं कि हे शिष्य ! वैराग्य और बोध, इन दोनों को पक्षीके पक्ष सदृश पुरुषका पक्ष तुम जानो जिस पुरुष के वैराग्य व बोध ये दोनों पक्ष विद्यमान हैं वही पुरुष मोक्षरूप कोठाका ऊर्द्धभागकी जो लता है उस लता पर जा सकता है एक पक्ष के रहने से अर्थात् केवल वैराग्य अथवा केवल बोध होने से मुक्तिरूपलताको नहीं पासक्ता ॥ ३७५ ॥ अत्यन्तवैराग्यवतः समाधिः समाहितस्यैव प्रबोधः । प्रबुद्धतत्त्वस्य हि बन्धमुक्तिर्मुक्तात्मनो नित्यसुखानुभूतिः ॥ ३७६ ॥
अत्यन्त वैराग्ययुक्त पुरुषका निर्विकल्पक समाधि स्थिर होता है जिस पुरुषका समाधि स्थिर हुआ उसी पुरुषको दृढतर बोध होता है जिसको चित्तमें परम बोध उत्पन्न हुआ वही पुरुष संसारबन्धसे मुक्त होता है जो मुक्त हुए वही सदा सुखका अनुभव करते हैं ॥ ३७६ ॥ वैराग्यान्न परं सुखस्य जनकं पश्यामि वश्यात्मनस्तच्चेच्छुद्धतरात्मबोधसहितं स्वाराज्यसाम्राज्य