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________________ भाषाटीकासमेतः। (९९) निर्विकल्पकसमाधिना स्फुटं ब्रह्मतत्त्वमवगम्यते ध्रुवम् । नान्यथा चलतया मनोगतेः प्रत्ययान्तरविमिश्रितं भवेत् ॥ ३६६॥ निर्विकल्पसमाधि सिद्ध होनेसे निश्चय स्पष्ट ब्रह्मतत्त्वका बोध होता है। जबतक मनकी गतिको चंचल होनेसे बाह्य वस्तुओंकी प्रतीतिसे मिला हुआ आत्मतत्त्व रहेगा तब तक ब्रह्मज्ञान कभी नहीं होगा३६६ अतः समाधत्स्व यतेन्द्रियः सन्निरंतरं शान्तमनाःप्रतीचि । विध्वंसय ध्वान्तमनायविद्यया कृतं सदेकत्वविलोकनेन ॥ ३६७॥ पूर्वोक्त शिक्षा कहकर श्रीशंकराचार्यस्वामी अपने शिष्यसे बोले कि, हे शिष्य ! इस लिये तुम इन्द्रियोंको अपने वशकरि सदा शान्त मन होकर सर्वव्यापक परब्रह्ममें चित्तको स्थिर रक्खो और सच्चिदानन्दस्वरूप एक परब्रह्मको देखनेसे अनादि अज्ञानसे उत्पन्न हुआ महा अन्धकारको नाश करो ॥ ३६७ ॥ योगस्थ प्रथमद्वारं वाङ्निरोधोऽपरिग्रहः । निराशा च निरीहा च नित्यमेकान्तशीलता३६८॥ वचनका निरोध करना ( अर्थात् मौन धारण करना ) द्रव्यका त्याग करना तथा निराश होना और चेष्टाको त्याग करना केवल एक ब्रह्ममें सदा चित्तको स्थिर रखना ये सब योगका प्रथम द्वार है अर्थात् पहिली सामग्री है ॥ ३६८॥ एकान्तस्थितिरिन्द्रियोपरमणे हेतुर्दमश्चेतसः संरोधे करणं शमेन विलयं यायादहवासना । तेनानन्दरसानुभूतिरचला ब्राह्मी सदा योगिनस्तस्माञ्चित्तनिरोध एव सततं कार्यः प्रयत्नान्मुने ॥३६९॥
SR No.002468
Book TitleVivek Chudamani Bhasha Tika Samet
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandrashekhar Sharma
PublisherChandrashekhar Sharma
Publication Year
Total Pages158
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, G000, & G999
File Size12 MB
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