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________________ वदन्तीति योज्यम् ।।९।। __ अर्थ - हे बुद्ध ! हे मनुरूप! हे मुनिपालक-मुनिश्रेष्ठ! हे आर्य! हे पूज्य! निश्चय से आपकी महिमा किसके द्वारा कही जा सकती है ? अर्थात् किसी के द्वारा नहीं। पृथिवी पर सब के द्वारा स्तुत सरस्वती ऐसा कहती है और स्तुतिविद्या में निपुण गणधर भी ऐसा ही कहते हैं। भावार्थ - आपकी सर्वथा निर्दोष-पूर्वापर विरोध से रहित वाणी ही इस बात को प्रकट करती है कि आपकी महिमा का वर्णन करने के लिये कोई समर्थ नहीं है ।।९।। [१०] निजनिधेनिलयेन सताऽतनो, मतिमता वमता ममता तनोः । कनकता फलतो ह्युदिता तनौ, यदसि मोहतमः सविताऽतनो! ।। हे अतनो! अतनोः निजनिधेः निलयेन मतिमता सता तनोः ममता वमता । फलतः तनौ कनकता हि उदिता। यत् (यस्मात्) मोहतमः सविता असि। निजनिधेरिति - हे अतनो! अविद्यमाना तनुः शरीरं यस्य तत्सम्बुद्धौ । अतनोः न तनुः स्वल्पा अतनुः विशाला तस्य निजनिधेः आत्मगुणभाण्डारस्य निलयेन स्थानेन, मतिमता बुद्धिमता, तनोः शरीरस्य 'स्त्रियां मूर्तिस्तनुस्तनूः' इति धनञ्जयः। ममता ममत्वबुद्धी: वमता उद्गिरता सता भवता तनौ शरीरे हि यतः फलतः फलस्वरूपेण कनकता कनकस्य भावः कनकता सुवर्णता उदिता प्रकटिता यद् यस्मात् कारणात् तेन त्वं मोहतमः सविता मोह एव तमो ध्वान्तं तस्य विनाशने सविता सूर्यः। असि वर्तते। यतश्च त्वं विशालात्मसम्पदः स्वामी वर्तसे, यतश्च स्वपरभेदविज्ञानवता त्वया शरीरे ममता बुद्धयो निरस्ताः, यतश्च तव शरीरे सुवर्णरूपता प्रकटिता तेन त्वं मोहतिमिरविदलने दिवाकरोऽसीति भावः ।।१०।। अर्थ - हे अतनो! हे अशरीर! यतश्च आप विशाल आत्मसम्पदा के आधार हैं, यतश्च स्वपरभेदविज्ञानी होकर आपने शरीर सम्बन्धी ममताओं को दूर किया है और यतश्च आपके शरीर में सुवर्ण जैसी आभा प्रकट हुई है अतः आप मोहरूपी तिमिर को नष्ट करने के लिये सूर्यतुल्य हैं ।।१०।। [११] जिनपदौ शरणौ त्वपि कौ कलौ, कमलकोमल कौ विमलौ कलौ । जनजलोद्भवरात्यहितौ हितौ, मयि मयाद्य हितौ महितौ हि तौ ।। हे (जिन!) तौ जनजलोद्भव-रात्यहितौ विमलौ कलौ कम्ल कोमलकौ मया महितौ हि मयि हितौ अद्य (७६)
SR No.002457
Book TitlePanchshati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyasagar, Pannalal Sahityacharya
PublisherGyanganga
Publication Year1991
Total Pages370
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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