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विज्ञ जनों के सेव्य नहीं है रहा काल यह ध्येय नहीं। ज्ञेय भले हो नियत रहा हो किन्तु नियम से हेय सही।। मोक्षमार्ग में शुचि चेतन ही सेव्य रहा है ध्येय रहा। अमेय भी है उपेय भी है शान्त सुधासम पेय रहा।। ८५।।
विषय त्याग से डरते हैं जो मूढ़ रहे वे भूल रहे। मुक्ति समय पर मिलती इस विध कहते हैं प्रतिकूल रहे।। मोह-भूत के वशीभूत हो आत्म-बोध से रहित हुये।। कषाय-वशं नर क्या नहिं करता पाप पंक में पतित हुये।।८६ ।।
निजी जाति के प्रति ईर्ष्या नहिं सदा अनुराग धरे। दिन में तो सम्भोग-कार्य में ना रत हो ना राग करे।। तदपि कहां है काक समादृत कारण का कुछ पता नहीं। लगता इसमें रूढ़ि रही हो नीति हमें यह बता रही।। ८७।।
आम्रादिक तरु सम जो होता सरस फलों से भरा नहीं। फूल फूलता.यद्यपि जिसमें गन्ध नहीं है हरा नहीं।। इक्षु दण्ड उद्दण्ड रहा है किन्तु रहा वह सरस महा। इसीलिए आ-बाल वृद्ध सब जिसे चाहते हरस रहा।।८८।।
तन के आश्रित जितने तप हैं गौण सभी तब होते हैं। जरा दशा में साधक मुनिजन मौन शमी जब होते हैं।। जिसे रोग 'मन्दाग्नि' हुआ या जिसने भोजन पाया है। इष्ट मिष्ट भोजन से अब ना अर्थ रहा प्रभु गाया है।।८९।।
उचित नाव के आश्रित जन को शीघ्र नदी का तीर मिले। छिद्र सहित यदि नाव मिली तो घोर रसातल पीर मिले।। शासक शासन उचित चलाता सबका वह संताप हरे। अनुचित सो अभिशाप रहा है आप, पाप परिताप करे।।९।।
बिन करनी कथनी में रत है तापस का भ्रम-भाव रहा। ज्ञात नहीं अनुभूत नहिं क्या? शुचितम आतम-भाव रहा।। पित्तकोप से ज्वर पीड़ित या सन्निपात का वह रोगी। जैसा प्रलाप करता रहता उसे मानते बुध योगी।।९१।।