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________________ नहीं भूलता उपकारक को कृतज्ञता गुण धरता है। श्वान सन्त सम कम सोता है निद्रा से अति डरता है।। किन्तु द्वेष रखता है निशिदिन निजी जाति से खेद यही। खेल खेलता कर्म कहाँ कब किस विधि खुलता भेद नहीं।।७८।। उपादान हो निमित्त हो या गौण मुख्य की शर्त नहीं। कार्य पूर्ण हो जाने पर फिर कारण से कुछ अर्थ नहीं।। बढ़ते बढ़ते ऊपर चढ़ते अंतिम मंजिल वह आती। एक एक कर क्रमशः पीछे सभी सीढ़ियां रह जाती।। ७९।। अशुभ-भाव से जनित भाकर कर्मों का वह नाश करे। शुभ भावों में वास कर रहे ध्यान सही जिन दास ! अरे! पवन योग पा उद्दीपित वह होता दावानल वन में। पूर्ण जलाता राख बनाता पूरण वन को वह क्षण में।।८।। यदपि मनुज की मोह भाव से सुप्त.चेतना होती है। विराग पहली दृष्टि दूसरी राग रंगिनी होती है।। बादल दल से गिरती धारा प्रथम समय में विमला हो। ज्यों ही धरती को आ छूती धूमिल पंकिल समला हो।।८१।। ऐसा देखा जाता जग में सभी नहीं श्रीफल खाते। मनुज तोड़ कर खाता हाथी गिरे हुये श्रीफल खाते।। आशा के तो दास नहीं हैं समता धन के धनी बने। मुक्ता खाता हंस मोक्षफल खाता है मुनि गुणी बने।। ८२।। पल-पल में प्रति पदार्थ-दल में अपनी अपनी पर्यायें। नई-नई छवि लेकर उठती मिटती रहती क्षणिकायें ।। तरंगमाला तरल छबीली पवन चले तब जल में है। झिल-मिल, झिलमिल करती उठती और समाती पल में है।।८३।। नहीं काल में नहीं काल से सुख मिल सकता ज्ञात रहे। सुख तो निर्नल गुण है अपना आत्म तत्त्व के साथ रहे।। हित चाडो तो मन वच तन से निज आतम में लीन रहो। यही प्रथम कर्तव्य रहा है भूल कभी मत दीन रहो।।८४।। (४)
SR No.002457
Book TitlePanchshati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyasagar, Pannalal Sahityacharya
PublisherGyanganga
Publication Year1991
Total Pages370
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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