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________________ अनियत विहार करता फिर भी निर्बल सा ना दीन बने, तथा किया उपवास तथापि परवश ना! स्वाधीन बने। भोजन पाने चर्या करता पर भोजन यदि नहिं मिलता, विषाद करता न हि पर, भोजन मिला हुआ-सा मुख खिलता।। ६४।। इष्टमिष्ट रस-पूरित भोजन मिलने पर हो मुदित नहीं, अनिष्ट नीरस मिलने पर भी दुःखित नहीं हो क्रुधित नहीं। सहित रहा संवेग भाव से सर्व रसों से विरत बना, चिंतन करता यह सब विधिफल साधु गुणों से भारत बना।।६५।। करते श्रुतमय सुधापान हैं द्वादशविध तप अशन दमी, दमन कर रहे इन्द्रिय तन का कषायदल का शमन शमी। केवल दिखते बाहर से ही क्षीणकाय हो दुखित रहे, भीतर से संगीत सुन रहे जीत निजी को सुखित रहे।। ६६ ।। . जनन जरा औ मरण रोग से श्वास-श्वास पर डरता.है, जिसके चरणों में आकर के नमन विज्ञ-दल करता है। दुष्कृत फल है दुस्सह भी है महा भयानक रोग हुआ, प्रभु पदरत मुनि नहिं डरता है धरता शुचि उपयोग हुआ।।६७।। सभी तरह के रोगों से जो मुक्त हुए हैं बता रहे, कर्मों के ये फल हैं सारे, खारे जग को सता रहे। रोगों का ही मन्दिर तन है अन्दर कितने पता नहीं, उदय रोग का, कर्म मिटाता ज्ञानी को कुछ व्यथा नहीं।।६८।। सुगन्ध चन्दन तैलादिक से तन का कुछ संस्कार नहीं, वसनाभूषण आभरणों से किसी तरह शृङ्गार नहीं। फिर भी तन में रोग उगा हो पाप कर्म का उदय हुआ, उसे मिटाने प्रासुक औषध मुनि ले सकता सदय हुआ।। ६९।। . रोग परीषह प्रसन्न मन से जो मुनि सहता धुव ज्ञाता, सुचिरकाल तक सुरसुख पाता अमिट अमित फिर शिव पाता। अधिक कथन से नहीं प्रयोजन मरण भीति का नाश करो, सादर परिषह सदा सही बस! निजी नीति में वास करो।।७०।। (२७३)
SR No.002457
Book TitlePanchshati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyasagar, Pannalal Sahityacharya
PublisherGyanganga
Publication Year1991
Total Pages370
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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