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________________ मोह-भाव से किया हुआ था पाप पाक यह उदित हुआ, पर का यह अपराध नहीं है उपादान खुद घटित हुआ। पर का इसमें हाथ रहा हो निमित्त वह व्यवहार रहा, अविरति-हन्ता नियमनियन्ता कहते जिनमतसार रहा।।५७।। काया लाली रही उषा की अशुचिराशि है लहर रही, भवदुःखकारण, कारण भ्रम का शरण नहीं है जहर रही। इसका यदि वध हो तो हो पर इससे मेरा नाश कहाँ? बोध-धाम हूँ चरण सदन, हूँ दर्शन का अवकाश यहाँ।। ५८।। बहुविध विधि का संवर होने में हित निश्चित निहित रहा, पापासव में कारण होता शिवपथ में वह अहित रहा। अन्ध मन्दमति! वधक नहीं ये बाह्यरूप में साधक हैं, पाप पुण्य के भेद जानते कहते मुनिगण-चालक हैं।। ५९।। अशन वसतिकादिक की ऋषिगण नहीं याचना करते हैं, तथा कभी भी दीन-हीन बन नहीं पारणा करते हैं। निजाधीनता फलतः निश्चित लुटती है यह अनुभव है, .. पराधीनता किसे इष्ट है वही पराभव, भव-भव है।। ६० ।। निज पद गौरव तज यदि यति हो मनो-याचना करते हैं, दर्पण सम उज्ज्वल निज पद को पूर्ण कालिमा करते हैं। शुचितम शशि भी योग केतु का पाकर ही वह शाम बने, यही सोचकर साधु सदा ये निज में ही अविराम तने।।६१।। बिना याचना, कर्म उदय से यह घटना निश्चित घटती, कभी सफलता, कभी विफलता भेद-भाव बिन बस बटती। इसीलिए मत याचक बनना भूल कभी बन भ्रान्त नहीं, याचक बनता नहीं जानता कर्मो का सिद्धान्त सही।। ६२ ।। याज्चा परिषह विजयी मुनिवर-समाज में मुनिराज बने, स्वाभिमान से मंडित जिस विध हो वन में मृगराज तने। याञ्चा विरहित यदि ना बनता जीवन का उपहास हुआ, विरत हुआ पर बुध कहते वह गुरुता का सब नाश हुआ।।३।। (२७२)
SR No.002457
Book TitlePanchshati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyasagar, Pannalal Sahityacharya
PublisherGyanganga
Publication Year1991
Total Pages370
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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