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________________ शीत-शील का अविरल-अविकल बहता जब है अनिल महा, ऐसा अनुभव जन-जन करते अमृत मूल्य का अनल रहा। पग से शिर तक कपड़ा पहना कप-कप कपता जगत रहा, किन्तु दिगम्बर मुनिपद से नहिं विचलित हो मुनि-जगत रहा।।१५।। तरुण-अरुण की किरणावलि भी मन्द पड़ी कुछ जान नहीं, शिशिर वात से ठिठुर शिथिल हो भानु उगा पर; भान नहीं। तभी निशा वह बड़ी हुई है लघुतम दिन भी बना तभी, पर; परवश मुनि नहीं हुआ है सो मम उर में ठना अभी।।१६।। यम-दम-शम-सम से मुनि का मन अचल हुआ है विमल रहा, महातेज हो धधक रहा है जिसमें तप का अनल महा। बाधा क्या फिर बाह्य गात पे होता हो हिमपात भले, जीवन जिनका सुखित हुआ हम उन पद में प्रणिपात करें।।१७।। भय लगता है नभ में काले जल वाले घन डोल रहे, बीच-बीच में बिजली तड़की घुमड़-घुमड़ कर बोल रहे। . वज्रपात से चूर हो रहे अचल, अचल भी चलित हुए, फिर भी निश्चल मुनि रहते हैं शिव मिलता,सुख फलित हुए।।१८।। चण्ड रहा मार्तण्ड ग्रीष्म में विषयी-जन को दुखद रहा, आत्मजयी ऋषि वशीजनों को दुखद नहीं शिव सुखद रहा। प्रखर, प्रखरतर किरण प्रभाकर की रुचिकर ना कण-कण को, कोमल-कोमल कमलदलों को खुला खिलाती क्षण-क्षण को।।१९।। सरिता, सरवर सारे सूखे सूरज शासन सक्त रहा, सरसिज, जलचर कहाँ रहें फिर? जीवन साधन लुप्त रहा। इतनी गरमी घनी पड़ी पर; करते मुनि प्रतिकार नहीं, शान्ति सुधा का पान करें नित तन के प्रति ममकार नहीं।।२०।। सुरमा, काजल,गंगा का जल, मलयाचल का चन्दन है, शरद चन्द्र की शीतल किरणें मणि माला, मनरंजन है। मन में लाते तक ना इनको, शान्त बनाने तन-मन को, मुनि कहलाते पूज्य हमारे जिनवर कहते भविजन को।।२१।। (२६६)
SR No.002457
Book TitlePanchshati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyasagar, Pannalal Sahityacharya
PublisherGyanganga
Publication Year1991
Total Pages370
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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