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________________ भूयांसो बहुदुःखकरामयाः प्रचुरदुःखकारिरोगाः विधिदलाः कर्मसमूहाः सन्ति । इति निरामया रोगरहिता जिना आहुः कथयन्ति । अत उपसर्गत उत्पातात् विधेः कर्मण: क्षरणं निर्जरणमेव भवति ।।६८।। अर्थ - स्वभाव से ही अपवित्रता के स्थानभूत इस शरीर में अनेक दुःखप्रद रोगों को करने वाले कर्मसमूह विद्यमान हैं, ऐसा रोगरहित जिनेन्द्र भगवान् कहते हैं। उपसर्ग से तो कर्म की निर्जरा ही होती है ||६८।। [६९] सुरभिचंदनलेपनरञ्जनात्, विरहितोऽपि सुधी मुनिरज्जनात् । अनघभेषजकं तु विधेयकं, भजतु रोगलयाय विधेऽयकम् ।। सुरभीति - अयकम् एष सुधीः प्रज्ञावान् मुनिः सुरभिचन्दनलेपनरञ्जनात् सुरभिचन्दनस्य सुगन्धिमलयजस्य लेपनेन यद् रञ्जनं रागस्तस्मात्। अञ्जनात् नयनकज्जलाद विरहितोऽपि रोगलयाय रोगविनाशाय विधेयकं कर्तुयोग्यम् अनघभेषजकं निर्दोषौषधं भजत सेवताम् हे विधे! इति सम्बोधनम् ।। ६९।। अर्थ - हे विधे! यह विवेकवान् मुनि, सुगन्धित चन्दन के विलेपनरूप अङ्गराग तथा नेत्रों के कज्जल से रहित होने पर रोग का नाश करने के लिये योग्य निर्दोष औषध का सेवन कर सकता है।।६९।। [७०] धुवममुं मुनिना भजतामितं, सुकृतजं निजकं स्ववता मितम् । प्रणिहितं बहुना किमु सादरं, विजहतं श्रय तं सहसा दरम् ।। ध्रुवमिति - ध्रुवं नित्यं निजकं स्वात्मानं स्ववता सुष्ठु प्रकारेण अवता सरक्षता, अमुं रोगपरिषहं भजता प्राप्नुवता ततश्च सकृतजं पुण्योद्भूतं मितं स्वर्गादिजमल्पं पुनश्च अमितं सीमातीतं निजकमात्मसुखं भजता सेवमानेन मुनिना प्रणिहितं धृतं अमुं तं रोगपरिषहं सादरं यथा स्यात्तथा श्रय प्राप्नहि। तं प्रसिद्ध दर भयं सहसा झटिति विजहतं त्यजत। बहुना किमु ? अधिककथनेन किं प्रयोजनम् ? ।। ७० ।। अर्थ- ध्रुव-नित्य निज आत्मा की रक्षा करते, इस रोगपरिषह को सहते और उसके फल स्वरूप पुण्य से उत्पन्न स्वर्गादिक के मित-सीमित तथा अमित-अपरिमित आत्मसुख को प्राप्त होने वाले मुनि ने जिसे धारण किया है-सहन किया है उस रोगपरिषह को आदरसहित सहन कर और प्रसिद्ध भय को नष्ट कर | अधिक कहने से क्या प्रयोजन है?।।७०।। (२४८)
SR No.002457
Book TitlePanchshati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyasagar, Pannalal Sahityacharya
PublisherGyanganga
Publication Year1991
Total Pages370
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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