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शोभे प्रभो परम पावन पा पदों को,
योगी करें नमन ये जिनके मदों को । सौभाग्य मान उनको उर में बिठा लूँ,
साफल्यपूर्ण निज-जीवन को बना लूँ । । १ ॥
ध्यानाग्नि से मदन को तुमने जलाया,
पीयूष स्वानुभव का निज को पिलाया । धारा सुरत्नत्रयहार, अतः कृपालो !
पूजूँ तुम्हें मम गुरो ! मद मेट डालो ।। २ ।।.
अन्धा विमोहतम में भटका फिरा हूँ,
कैसे प्रकाश बिन संवर भाव पाऊँ । शारदे ! विनय से द्वय हाथ जोडूं,
आलोक दे विषय को विष मान छोडूं । । ३ ॥
सम्मान मैं समय का करता कराता,
हूँ ' भावनाशतक' काव्य अहो ! बनाता । मेरा प्रयोजन प्रभो ! कुछ और ना है,
जीतूं विभाव भव को बस भावना है ।।४॥
आदर्श सादृश सुदर्शन शुद्धि प्यारी,
पाके जिसे जिन बने स्व- - परोपकारी । ऐसा जिनेश मत है मत भूल रे ! तू,
साक्षात् भवाम्बुनिधि के यह भव्य सेतु ।। ५।।
होता विनष्ट जब दर्शनमोह स्वामी,
जाती तथा वह अनन्त कषाय नामी । पाते इसे जन तभी जिन ! जैन जो हैं,
सद्भारती कह रही जनमीत जो हैं ।। ६॥
जो अङ्ग अङ्ग करुणारस से भरा है,
शोभायमान दृग से वह हो रहा है । औचित्य है समझ में यत बात आती,
अत्युज्ज्वला शशिकला निशि में सुहाती ।। ७ । '
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