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हो मृत्यु से रहित ''अक्षर'' हो कहाते,
हो शुद्ध जीव 'जड अक्षर'' हो न तातें। तो भी तुम्हें न बिन अक्षर जान पाया,
स्वामी अतः स्तवन अक्षर से रचाया ।।९९।।
चाहूँ कभी न दिवि को अयि वीर स्वामी,
पीऊं सुधारस स्वकीय बनें न कामी। पा 'ज्ञानसागर'' सुमंथन से सुविद्या,
. विद्यादिसागर बनूँ तज दूं अविद्या ।। १००।।
भूल क्षम्य हो लेखक कवि मैं हूँ नहीं मुझमें कुछ नहि ज्ञान त्रुटियाँ होवे यदि यहाँ शोध पढ़ें धीमान ।।१।।
स्थान समय परिचय · आत्म साधना कुछ बढ़ी कुण्डलगिरि पै हर्ष श्रीधर केवलिचरण का सविनय कर संस्पर्श ।।२।। गुप्ति गगनगतिसंग की अमा अषादी आज लिखा गया यह ग्रन्थ है भुक्ति-मुक्ति के काज ।।३।।
[इति शुभं भूयात्]
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