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________________ चाहूँ न राज सुख मैं सुरसम्पदा भी, चाहूँ न मान यश देह नहीं कदापि । हे ईश गर्दभ समा तन भार ढोना, कैसे मिटे, कब मिटे, मुझको कहो ना ।।९२।। मेरी सुसुप्त उस केवल की दशा में, ये आपकी सहज तैर रहीं दशायें यों आपका कह रहा श्रुत सत्य प्यारा, मैंने उसे सुन गुणा रुचि संग धारा ।। ९३ ।। संसार से विरत हूं तुम ज्योति में हूं, निस्तेज कर्म मुझमें जब होश में हूं । बैठा रहे निकट नाग कराल काला, टूटा हुआ, कि जिसका विषदन्त भाला ।। ९४ ।। विज्ञान से अति सुखी बुध वीतरागी, अज्ञान से नित दुखी मद-मत्त, रागी । ऐसा सदा कह रहा मत आपका है, धर्मात्म का सहचरी, रिपु पाप का है ।। ९५।। हो आज सीमित भले मम ज्ञान धारा, होगी असीम तुम आश्रय पा अपारा । प्रारम्भ में सरित हो पतली भले ही, पै अन्त में अमित सागर में ढले ही ।। ९६।। लो आपके सुखमयी पदपंकजों में, श्रद्धासमेत नत हूं तब लौ विभो मैं । विज्ञानरूप रमणी मम सामने आ, ना नाच गान करती जब लौ न नेहा ।। ९७ ।। स्वामी तुम्हें निरख सादर नेत्र दोनों, आरूढ़ मोक्षपथ हो मम पैर दोनों । ले ईश नाम रसना, शिर तो नती से, यों अंग अंग हरषे तुम संगती से ।। ९८ ।। ( १४० )
SR No.002457
Book TitlePanchshati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyasagar, Pannalal Sahityacharya
PublisherGyanganga
Publication Year1991
Total Pages370
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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