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दशाश्चेति यावत् तरन्ति प्रतिफलन्ति इतीत्थं भगवतस्तव अमितमपरिमितं श्रुतम् अस्ति यत् मया मुनिना स्तोत्रा दृशा श्रद्धया सह हि निश्चयेन पठितमधीतं श्रुतंच । श्रुतज्ञानमेव केवलज्ञानरूपेण परिणमतीति यावत् ।। ९३ । ।
अर्थ- हे भगवन्! यह भावी उत्कृष्ट ज्ञान है और इस व्यापक ज्ञान में आपकी ये समस्त दशाएं तैर रही हैं- प्रतिबिम्बित हो रही हैं, ऐसा भगवान् आपका अपरिमित श्रुत जो मुझ मुनि ने श्रद्धा के साथ निश्चय से पढ़ा है और सुना है।
भावार्थ - बारहवें गुणस्थान के अन्त में विद्यमान श्रुतज्ञान ही घातिचतुष्क का. क्षय हो जाने पर केवल ज्ञान रूप परिणत हो जाता है। वह लोकालोकवर्ती पदार्थों को जाने से व्यापक होता है और उसमें सब पदार्थ प्रतिफलित होते हैं ।। ९३||
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मयि रतोऽहमतो भवतो रुचि, गतबलस्तु विधिर्भवतोऽरुचिः । विषधरो विषदन्तविहीनकः, सहचरोऽपि भवन् किमु हीनक । ।
हे इन! क! भवतः रुचि अहम् रतः अतः भवतः अरुचिः मयि अस्तु (अतः ) गतबलः विधिः (अस्तु) विषदन्तविहीनकः हि विषधरः सहचरः भवन् अपि किमु ? (कापि हानि: न )
मयीति - हे इन! हे ईशितः !' भर्तेन्द्र इन ईशिता' इति धनञ्जयः । हे क! हे ब्रह्मन् ! 'को ब्रह्मानिलसूर्याग्नियमात्मद्योतबर्हिषु' इति विश्वलोचनः । भवतस्तवं रुचि श्रद्धायाम् ज्योतिषि वा अहं स्तोता रतो लीनः । अतोऽस्मात् कारणात् भवतः संसारात् अरुचिः अप्रीतिः मयि स्तोतरि अस्तु भवतु । गतबलो निर्बलः विधिः कर्म अस्तु । विषदन्तविहीनकः विषदन्तेन विहीनो विषदन्तविहीनः स एव विषदन्तविहीनकः स्वार्थे कप्रत्ययः। विषधरः सर्पः सहचरो सहगामी भवन्नपि किमु ? कापि हानिर्नास्तीति भावः । । ९४ ।।
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अर्थ - हे स्वामिन्! हे ब्रह्मन् ! आपकी रुचि - श्रद्धा या ज्योति में मैं रत हूँ - लीन हूँ अतः संसार से अरुचि मुझमें हो । सम्प्रति क्षीणशक्ति वाले कर्म मुझमें हैं तो रहें, उनसे हानि नहीं। जैसे विषदन्त से रहित सांप साथ में रहे तो क्या करेगा ?
भावार्थ- जिनेन्द्रदेव का श्रद्धान होने से सम्यग्दर्शन हो जाता है। विरतसम्यग्दृष्टि जीव संसार में रहता हुआ भी संसार से विरक्त रहता है। वह चाहता तो है कि कर्म की एक कणिका भी मेरी आत्मा में न रहे पर निष्कर्म अवस्था प्राप्त कर लेना उसके तात्कालिक पुरुषार्थ की बात नहीं है । मिथ्यात्व के नष्ट हो जाने
सत्ता में स्थित कर्मों की शक्ति क्षीण हो जाती है। ऐसे शक्तिहीन कर्म संसारदशा में विद्यमान रहते हैं पर उनसे उतनी हानि नहीं ||९४||
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