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उचितमेतत् हि यतः इह जगति कारण एव निमित्त इव लयं नाशं गते सति इदं कार्यं नु भवतु ? न्विति वितर्के । यतः कारणे प्रलयं गते तन्निमित्तजं कार्यं न भवति ततो मनसोऽभावे सति तत्र समुत्पन्नो मनोज: कथमिव भवेत् न कथमपीति यावत् ।। ७६ ।।
अर्थ-हे अभय को प्राप्त जिनेन्द्र ! निश्चय से जो मनुष्य आनन्दस्वरूप आप सज्जन में मन को लगाता है वह शुद्धात्मस्वरूपी मनुष्य साथ-साथ उत्पन्न होने वाले भी काम को जीत लेता है । उचित ही है, इस जगत् में कारण के नष्ट होने पर कार्य क्या होता है ? अर्थात् नहीं होता।
भावार्थ-काम मनसिज कहलाता है क्योंकि उसकी उत्पत्ति मन में होती है। साधक ने जब अपना मन परमानन्दमय जिनेन्द्र में लगा दिया तब मन का अभाव हो जाने से मनोज काम की उत्पत्ति कैसे हो सकती है ? ||७६।।
[७७] त्वयि रुचे रहिताय न दर्शनं,तव हिताय वृथा तददर्शनम्।
खविकलाय करोतु न दर्पणं समवलोकनशक्तिमुदर्पणम्।। हे जिन! त्वयि रुचेः रहिताय तव दर्शनम् न हिताय (किन्तु) तत् वृथा अदर्शनम् (एव अस्तु) (उचितमेव) खविकलाय समवलोकन शक्तिमुदर्पणम् दर्पणम् न करोतु ।
त्वयीति- हे जिन! त्वयि भवति रुचेः प्रीतेः श्रद्धाया वा रहिताय जनाय तव दर्शनं समवलोकनं शासनं वा हिताय श्रेयसे न भवति । तत् दर्शनं वृथा अकार्यकरं वर्तते । अतोऽदर्शनमदर्शनतुल्यं स्यात् । उचितमेवैतत् यतः खविकलाय चक्षुरिन्द्रियहीनाय जनाय दर्पणमादर्श: समवलोकनशक्तिमुदर्पणं समवलोकनस्य दर्शनस्य या शक्तिः सामर्थ्य तदुत्पन्ताया मुदो हर्षस्यार्पणं प्रदानं न करोतु न विदधातु।।७७।।
अर्थ-हे जिन! जो आपमें प्रीति अथवा श्रद्धा से रहित है उसके लिये आपका दर्शन अथवा शासन हितकारी नहीं होता। उसका दर्शन व्यर्थ है अदर्शन के समान है | यह उचित ही है क्योंकि नेत्रेन्द्रिय से हीन मनुष्य के लिये क्या दर्पण देखने की शक्ति से उत्पन्न होने वाले हर्ष को प्रदान कर सकता है ? अर्थात् नहीं ।।७७।।
[७८] सुधियि वागमृतं कलुषायतेकुधियि वान्तविमोहविषाय ते ।
सलिलदात् स्रवदम्बु नदेऽमृतं,विषधरे विषकं ह्यकदे मृतम् ।। हे वान्तविमोह विष! अय! ते वाक् सुधियि अमृतं कुधियि (वाक्) कलुषायते (सत्यमेवैतत्)
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