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________________ [2] नाममाला के अतिरिक्त दूसरी कृति 'अनेकार्थ नाममाला' के नाम से जानी जाती है। 46 पद्यों वाली यह कृति श्लोक प्रमाण की अपेक्षा अल्प है किन्तु इसमें अनेकार्थ बोधक शब्दों का सूक्ष्मदृष्टि से विवरण उपलब्ध होता है। पी. एल. वैद्य के अनुसार नाममाला की उल्लेखनीय विशेषता यह है कि इस पर अमरकीर्ति का भाष्य रचित है। जिसमें नाममाला के जहां पर्यायवाची शब्दों की व्यत्पत्लि देकर स्पष्टीकरण किया गया है वहीं अपनी दृष्टि में आए कुछ और पर्यायवाची शब्दों को भी शामिल कर दिया है। उनके भाष्य की वही सरणि पद्धति है जो कि अमरकोश की प्रसिद्ध टीका में क्षीरस्वामी ने अपनायी है। भाष्य में प्रत्येक शब्द की व्याकरण सिद्ध व्युत्पत्ति सूत्र निर्देशपूर्वक बताई गयी है। उणादि से सिद्ध हो या अन्य रीति से पर कोई भी शब्द निर्युत्पत्ति नहीं रह गया है। व्युत्पत्तियों की प्रमाणिकता के लिए भाष्यकार ने लगभग 15-20 ग्रन्थों एवं 8-10 ग्रन्थकारों का नाम निर्देश प्रमाण कोटि में उपस्थित किया है। सेन्द्रवंश (सेनवंश) में उत्पन्न, त्रैविद्य एवं शब्दवेधा उपाधि से अलंकृत महापण्डित अमरकीर्ति दशभक्त्यादि महाशास्त्र के रचयिता वर्धमान के समकालीन, विद्यानन्द के पुत्र विशालकीर्ति के सधर्मा माने जाते हैं एवं इनका काल लगभग ईस्वी 1450 के करीब माना जाता है।# अमरकीर्ति के भाष्य सहित नाममाला का संपादन पं. शम्भूनाथ त्रिपाठी, व्याकरणाचार्य सप्ततीर्थ द्वारा किया गया है। पं. महेन्द्रकुमार जी न्यायाचार्य के अनुसार सभाष्य नाममाला के अतिरिक्त 153 श्लोकों में निबद्ध 'अनेकार्थ निघण्टु' पं. हरगोविन्द शास्त्री द्वारा सम्पादित एवं मुद्रित भी है। इसके अन्त में प्राप्त पुष्पिका वाक्य - "इति महाकविधनंजयकृते निघण्टुसमये शब्दसंकीर्णे अनेकार्थप्ररूपणो द्वितीयपरिच्छेदः " में महाकवि धनंजय का उल्लेख स्पष्टतया किया गया है, परन्तु . रचनाशैली आदि से यह निश्चयतः नहीं कहा जा सकता कि यह कति इन्हीं धनंजय की है। [3] तीसरी कृति 'विषापाहार' स्तोत्र है जो आदि ब्रह्मा ऋषभदेव के स्तवन रूप में 39 इन्द्रवजा वृत्तों का स्तुति ग्रन्थ है। यह स्तवन अपने प्रसाद, ओज, गाम्भीर्य, प्रौढ़ता और अनूठी उक्तियों के लिए सुप्रसिद्ध है। इस पर अनेक संस्कृत टीकाएं प्राप्त हैं जिनमें 16 वीं शती के विन्दन् पार्श्वनाथ के पुत्र नागचन्द्र की तथा दूसरी टीका चन्द्रकीर्ति की विशिष्ट [4] धनंजय कवि का सन्धान शैली में काव्यवैशिष्ट्य से परिपूर्ण सर्वप्रथम, प्राचीन तथा महत्वपूर्ण काव्य है - 'दिसन्धान महाकाव्य -। इसके रचयिता होने के कारण महाकवि धनंजय संस्कृत साहित्य जगत् में 'दिसन्धानकवि' नाम से भी जाने जाते हैं। 18 सर्गों में विभक्त तथा आठ सौ श्लोकों में निबद्ध इस महाकाव्य को 'राघव-पाण्डवीयकाव्य के नाम से भी जाना जाता है। भोज (11 वीं शती ईसवी के मध्य) के अनुसार द्रिसन्धान उभयालंकार के कारण होता है। जो तीन प्रकार का है - प्रथम वाक्यगत श्लेष है, द्वितीय अनेकार्थ स्थिति है और तृतीय राघव-पाण्डवीय की तरह पूरा काव्य ही दो कथाओं को कहने वाला हो। एक साथ रामायण और महाभारत की कथा को कुशलता पूर्वक प्रत्येक पद्य/श्लोक में दो अर्थों में प्रस्तुत करते हैं। प्रथम अर्थ से रामचरित निकलता है तो दूसरे अर्थ से पाण्डवों के इतिवृत्त के साथ कृष्णचरित प्रतिपादित है।
SR No.002457
Book TitlePanchshati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyasagar, Pannalal Sahityacharya
PublisherGyanganga
Publication Year1991
Total Pages370
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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