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डॉ. नेमिचन्द्र शास्त्री, ज्योतिषाचार्य के अनुसार सुन्दरगणि ने अपने धातुरत्नाकर में विश्वलोचन कोश के उद्धरण दिये हैं। धातुरत्नाकर का काल ईस्वी 1624 है, अतः श्रीधरसेन का समय ई.1624 के पहले अवश्य है। विक्रमोर्वशीय पर रंगनाथ ने ईस्वी 1656 में टीका लिखी है। इस टीका में विश्वलोचन कोश का उल्लेख किया गया है। अतः यह सत्य है कि विश्वलोचन की रचना 16 वीं सदी के पूर्व की होगी।
शैली की दृष्टि से विश्वलोचन पर हैम, विश्वप्रकाश और मेदिनी इन तीन कोशों का प्रभाव दृष्टिगत होता है। यतः विश्वप्रकाश का रचना काल ई. 1105, मेदिनी का समय इसके कुछ वर्ष पश्चात् अर्थात् 12 वीं शताब्दी का उत्तरार्ध और हेम का भी 12 वीं शती का उत्तरार्ध है। अतः विश्वलोचन कोश का समय 13 वीं शताब्दी का उत्तरार्ध या 14 वीं शताब्दी का पूर्वार्ध मानना चाहिए। पं. परमानन्द शास्त्री ने श्रीधरसेन का समय 13 वीं शताब्दी में होने की संभावना व्यक्त की है। 5 तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा (भाग 4), लखक- स्व. डॉ. नेमिचन्द्र शास्त्री, ज्योतिषाचार्य, प्रका. श्री भारतवर्षीय दिगम्बर जैन विद्वत्परिषद, सागर, प्रथम संस्करण, वीर निर्वाण संवत् 2501, पृष्ठ 611 - जैनधर्म का प्राचीन इतिहास (भाग 2), पृष्ठ 4191 महाकवि धनंजय
महाकवि धनंजय ने स्वयं अपने किसी ग्रन्थ में अपना परिचय अथवा समय आदि का उल्लेख नहीं किया है। महाकवि धनंजय के 'द्विसंधानमहाकाव्य' के अन्तिम पद्य की व्याख्या से टीकाकार ने इनके पिता का नाम वसुदेव, माता का नाम श्रीदेवी तथा गुरु का नाम दशरथ सूचित किया है। ये दशरूपक के लेखक से भिन्न हैं।* कवि गृहस्थ धर्म और गृहस्थोचित षट्कर्मों का पालन करता था। इनके विपापाहार स्तोत्र के सम्बन्ध में कहा जाता है कि कवि के पुत्र को सर्प ने डंस लिया था, अतः सर्प विप को दूर करने के लिए ही इस स्तोत्र की रचना की गयी थी।
कृतित्व - [1] धनंजय नाममाला' के नाम से ख्यात यह कोश सुन्दर, व्यवहारोपयोगी तथा विद्यार्थी जगत् के लिए आवश्यक शब्दों से समुद्र है। महाकवि धनंजय ने 205 श्लोकों के इस छोटे-से कोश में बड़े ही कौशल से संस्कृत भाषा के प्रमुख शब्दों का चयन कर गागर में सागर की भर दिया है। इसलिए प्रतिहार राजा महेन्द्रपाल के उपाध्याय तथा काव्यमीमांसा के कर्ता राजशेखर ने कवि और उसके काव्य/साहित्य की प्रशंसा की है। इस कांश में लगभग 1700 शब्दों के अर्थ दिये गये है। पर्यायवाची शब्दों के संग्रह के लिए प्रसिद्ध इंस कोश में शब्द से शब्दान्तर बनाने की प्रक्रिया है जो कवि के अनुपम वैदुष्य, निराली पद्धति के लिए चर्चित है, यह विधा अन्यत्र देखने में नहीं आती। जैसे 'पृथिवी' वाचक नामों के आगे 'घर'शब्द या घर के पर्यायवाची शब्द जोड़ देने से 'पर्वत' के नाम, मनुष्य के वाचक नामों के आगे 'पति' शब्द या स्वामिन जैसे समानार्थक शब्द जोड़ देने से राजा' के नाम, वक्ष' के नामों के आगे 'चर' शब्द जोड़ देने पर 'बन्दर' के नाम तथा 'पृथिवी' वाचक शब्दों के आगे 'रुह' जोड़ देने से वक्ष के नाम बन जाते हैं।