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अर्थ- हे विभो ! आप उज्ज्वल - - शान्तिदायी सुधा के खान स्वकीय शुद्धगुणरूप किरणों से सदा चंद्रमारूप हैं। यदि ऐसा नहीं है तो मेरे मनरूपी चंद्रकान्तमणि से तत्काल सम्यग्दर्शनरूप जल न झरता ।
भावार्थ - जिस प्रकार चंद्रकिरणों का स्पर्श होने पर चंद्रकांत मणि से पानी झरने लगता है, उसी प्रकार आपका ध्यान आने से मेरे मन में सम्यग्दर्शन प्रकट हो जाता है।।२३।।
[२४] विमदवञ्चितविश्वमकं पते ! सुमन एति न भूभृदकंप! ते ।
निजपदं ह्यय एव विभावत, स्त्यजति नो कनकं भुवि भावतः । । हे पते ! भूभृदकंप ! ते सुमनः अकम् न एति । विगदवंचितविश्व म् तु (एति ) ( उचितमेव) : विभावतः निजपदम् त्यजति ( किन्तु ) भुवि कनकं (निजपदम् ) नो ( त्यजति ) ।
विमदेति- हे पते! हे स्वामिन्! हें भूभृदकंप! भूभृद इवाकम्पस्तत् सम्बुद्धौ सुदृदधैर्यशालिन्! इति यावत् । ते तव सुमनः शोभनहृदयं विषयाशांच्युतचित्तं । अकं पापं 'अकं दुःखाघयो:' इति विश्वलोचनः । न एति न प्राप्नोति । किंतु विमदवञ्चितविश्वं विविधैर्मदैर्वञ्चितं प्रतारितं यद् विश्वं जगत् तत् अकं पापं एति । हि यतः विभावतो विरुद्धपरिणमनात् अय एव लोह एव निजपदं स्वस्थानं त्यजति मुञ्चति । भुवि पृथिव्यां कनकं स्वर्णं भावतः स्वरूपस्थैर्यात् नो त्यजति नो मुञ्चति । यथा लोहः पङ्कपतितो विकारं प्राप्नोति तथा स्वर्णं न प्राप्नोति । यथा विषयानुरक्तं जगद् विकृतिं याति तथा भवच्चित्तं पर्वतवन्निश्चलत्वाद्विकृतिं न यातीति भावः । । २४ । ।
अर्थ- हे पर्वत के समान अकम्प रहने वाले प्रभो! आपका प्रशस्त हृदय अक - पाप को नहीं प्राप्त होता किंतु विविध प्रकार के मदों से प्रसारित जगत् अक को प्राप्त होता है । यह उचित ही है क्योंकि पृथिवी पर विरुद्ध परिणमन के कारण लोहा ही अपने स्वभाव को छोड़ता है, स्वर्ण नहीं ।
भावार्थ- पृथिवी पर स्पष्ट देखा जाता है कि कीचड़ के संग से लोहा ही अपने स्वभाव को छोड़ता है, स्वर्ण नहीं । इसी प्रकार जगत् के अन्य जीवों का मन विकृति को प्राप्त होता है, वैराग्यभाव से सहित आपका मन नहीं । आप सुदृढचित्त जो हैं ।।२४।।
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