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रूपकुंडलाकी कथा।
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दूसरेसे करावे और न हिंसा करनेवालोंकी कभी प्रशंसा करे, यह अहिंसाणुव्रत है। .
सत्याणुव्रत-निस झूठके द्वारा लोग बुरा कहें, निन्दा हो और अपना विश्वास उठ जाय-कोई अपने बचनोंकी प्रतीति न करे, उसे कभी न बोलना चाहिए, और न दूसरोंसे बुलवानी चाहिए। इसके सिवा ऐसा सत्य भी बोलना उचित नहीं, जिसके द्वारा बिना कारण किसीके प्राण नष्ट हों; यह सत्याणुव्रत है। ___ अचौर्याणुव्रत-किसीके रखे हुए, गिरे हुए, भूले हुए, धनको न स्वयं ले और न उसे उठा कर दूसरोंको दे; यह अचौर्याणुव्रत है। . ब्रह्मचर्याणुव्रत-पुरुष अपनी स्त्रीके सिवा अन्य स्त्री-मात्रको माता बहिनके समान गिनें । इसी भाँति स्त्रियाँ अपने पतिके सिवा अन्य पुरुष-मात्रको पिता-भाईके समान समझें; यह ब्रह्मचर्याणुव्रत है। इसीका दूसरा नाम स्वदारसंतोषव्रत भी है। ___ परिग्रहपरिमाणाणुव्रत-धन-धान्य, दासी-दास, चाँदी-सोना आदि वस्तुओंकी मर्यादा करना अर्थात् अपने संतोषके अनुसार मैं इतना धन रखता हूँ, इतना सोना-चाँदी रखता हूँ, इतने नौकर-चाकर रखता हूँ; इस प्रकार परिमाण करनेको परिग्रहपरिमाणाणुव्रत कहते हैं। अर्थात् जिससे अपनी लोकयात्रा सुखस बीते, धर्मका शांतिके साथ साधन हो, और किसी तरहकी आकुलता न हो, उतना धन-धान्य आदि रख कर विशेष तष्णाको घटाना चाहिए । यह व्रत लोभ घटाने और निराकुलता बढ़ानेके लिए है । और लोभ तब ही घटता है जब तृष्णा नष्ट करदी जाती है । इसलिए सुख-शान्तिकी प्राप्तिके लिए परिग्रह-प्रमाणाणुव्रतका पालन करना आवश्यक है।