SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 75
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६६ वैसे ही मिथ्यात्व, अविरत, प्रमाद, कषाय आदिके द्वारा जो कर्म आते हैं, उन्हें दशलक्षण धर्म, बारह भावना, तीन गुप्ति, पाँच समिति आदि द्वारा रोक देना, यह संवर है । भक्तामर-कथा । निर्जरा -- पूर्वके बँधे कर्मोंका एक देश अर्थात् कुछ अंश नष्ट होनेको निर्जरा कहते हैं । मोक्ष - कर्मोंके पूर्ण रूपसे नष्ट हो जानेको मोक्ष कहते हैं। जो जीव मोक्ष चले जाते हैं, वे फिर संसारमें नहीं आते। संसार के कारण कर्मोंको उन्होंने नष्ट कर दिया है । वे अनन्त काल तक वहीं रहेंगे और अपने स्वभावसे उत्पन्न होनेवाले अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसुख, और अनन्तवीर्य आदि परमोत्कृष्ट गुणोंको भोगते रहेंगे । इस प्रकार देव, गुरु, शास्त्र, और सात तत्वोंके श्रद्धान अर्थात् निश्चय करनेको सम्यग्दर्शन कहते हैं । अब धर्मका स्वरूप सुन । धर्म दो प्रकार है । एक मुनिधर्म और दूसरा गृहस्थधर्म । मुनिधर्म महाव्रतरूप है और श्रावकधर्म अणुव्रतरूप है । मतलब यह कि जैसे हिंसाका त्याग मुनि और श्रावक दोनोंके होता है, पर उसमें विशेषता यह है कि मुनि तो त्रस और स्थावरइन दोनों हिंसाका मन-वचन-काय और कृत-कारित - अनुमोदनासे त्याग करते हैं, और श्रावक केवल संकल्पी त्रस - हिंसाका त्याग करते हैं और अपने योग्य स्थावर - हिंसा करते हैं । कारण बिना ऐसा किये गृहस्थाश्रम चल ही नहीं सकता । गृहस्थोंके पाँच अणुव्रत - अहिंसाणुव्रत - मन-वचन-काय और कृत- कारित - अनुमोदनासे किसी जीवकी अर्थात् दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय, चार इन्द्रिय, और पंचेन्द्रिय जीवों की इस संकल्पसे कि 'मैं इसे मारूँ' न स्वयं हिंसा करे, न किसी
SR No.002454
Book TitleBhaktamar Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaylal Kasliwal
PublisherJain Sahitya Prasarak karyalay
Publication Year1930
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy