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बहुत विस्तारके साथ लिखी गई हैं । पर हमें मूल पुस्तक प्राप्त नहीं हो सकी, इसलिए हमने फिर रायमल्लकी बनाई हुईंका ही हिन्दी रूपान्तर करके पाठकोंकी भेंट किया है।
रायमल्ल कब हए. वे कौन थे और कब उन्होंने इस पुस्तकको रचा ? इस विषयका स्वयं उन्होंने पुस्तकके अन्तमें परिचय दिया है । इसलिए यहाँ पर उस विषयमें कुछ लिखना उचित नहीं जान पड़ता। ___ इसकी कथाओंके पढ़नेसे सर्वसाधारणकी इच्छा होगी कि हम भी इसके मंत्रोंको सिद्ध कर सब सिद्धियाँ प्राप्त करें, लक्ष्मीको अंकशायिनी बनावें, संसारमें सम्मान लाभ करें, और सबको अपना अनुगामी बनावें, आदि । इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि वे मंत्र-सिद्धिसे उक्त सब बातें प्राप्त कर सकते हैं। परन्तु उन्हें पूर्णतः ध्यानमें रखना चाहिए कि मंत्र-शास्त्र जैसा ही उपयोगी है वैसा ही अत्यन्त कष्ट-साध्य भी हैं । बल्कि सर्वसाधारणके लिए तो उससे लाभ उठाना असंभव है। मंत्रोंके सिद्ध करनेके लिए मानसिक और शारीरिक बलकी पूर्णता होनी ही चाहिए। साधकोंके मनमें कोई बुरे विकार, बुरे भाव और अपवित्रता नहीं होनी चाहिए। इसमें चंचल मनको एक जगह खूब दृढ़ रोके रखनेकी बहुत ही जरूरत है। विषय-लालसा, काम-वासना वगैरहसे मनको कभी विचलित नहीं होने देना चाहिए। उसे सदा संयत-अपने वशमें रखना चाहिए। उसी तरह शरीर भी अत्यन्त सहनशील होना चाहिए। क्योंकि मंत्र साधनेवालोंके सिर पर हर समय अनेक उपद्रव, अनेक कष्ट, अनेक आपदाएँ घूमती रहती हैं। जिसने उन पर विजय प्राप्त नहीं कर पाया फिर वह कहींका नहीं रहता । शास्त्रोंमें अनेक उदाहरण ऐसे मिलेंगे कि मंत्र साधनेसे कई विक्षिप्त हो गए, कई भय खाकर मर मिटे । इसका यही कारण है कि उनमें मानसिक और शारीरिक बल नहीं था। जैनशास्त्रका तो सिद्धान्त है कि जिसमें ये दोनों बल नहीं वह न योगी हो सकता है
और न भोगी। उसका जन्म निरर्थक है । इस पुस्तकको देखकर अनेक सज्जन इस विषयमें सफलता लाभ करनेकी दौड़ लगानेका यत्न करेंगे । हम उन्हें यह नहीं कहते कि वे अपनी कार्यसिद्धिके लिए यत्न न करें; पर इसके पहले वे इतना जरूर देखलें कि उनमें मानसिक और शारीरिक बल कितना है ? उनकी पूर्णता है या नहीं ? इसके बाद यदि वे अपनेको सब तरह समर्थ पावें तो निडर होकर इस विषयमें आगे बढ़े। और यदि अपनेको समर्थ न देखें तो दिनरातके अभ्यास द्वारा अपने शरीर और मनको शक्तिशाली बनाकर फिर इसमें हाथ डालनेका