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रणधीरकी कथा |
रणधीर जब अपने नगर में सकुशल लौट आया तब उसकी प्रजाने उसका बहुत स्वागत किया; सारे शहरको खूब सजाया, और अपने राजाकी प्रसन्नता के लिए खुब आनन्द उत्सव मनाया । रणधीर फिर पापियों के लिए दुर्लभ राज्य-सुख भोगने लगा और अपना समय आनन्दसे बिताने लगा ।
जिस स्तोत्रके पाठका इतना महत्त्व है कि जीव कर्मके बन्धन से भी छूट जाता है उसीके प्रभावसे साधारण लोहे आदिके बन्धन से मुक्ति पा लेना कोई आश्चर्य की बात नहीं; किन्तु होना चाहिए पवित्र भाव के साथ ईश्वराराधन |
मत्तद्विपेन्द्रमृगराजदवानलाहिसंग्रामवारिधिमहोदरबन्धनोत्थम् तस्याशु नाशमुपयाति भयं भियेव
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यस्तावकं स्तवमिमं मतिमानधीते ॥ ४७ ॥ स्तोत्रस्रजं तव जिनेन्द्र गुणैर्निबद्धां
भक्त्या मया रुचिरवर्णविचित्रपुष्पाम् ।
धत्ते जनो य इह कण्ठगतामजस्रं
तं मान - तुङ्गमवशा समुपैति लक्ष्मीः ॥ ४८ ॥
हिन्दी पद्यानुवाद | जो बुद्धिमान इस सुस्तबको पढ़े हैं,
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होके विभीत उनसे भय भागं जातादावाग्नि-सिन्धु-अहिका, रण-रोगका, त्यों
पञ्चास्य मत्त गजका, सब बन्धनोंका ॥ तेरे मनोज्ञ गुणसे स्तवमालिका ये,
गूँथ प्रभो ! विविधवर्ण-सुपुष्पवालीमैंने सभक्ति, जन कण्ठ धरे इसे जो
सो मानतुंग सम प्राप्त करे सुलक्ष्मी ॥