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भक्तामर-कथा।
बड़े अचम्भेमें पड़ गया। उसे अनुसंधान करनेसे अपनी सोतेली माकी सब बातें ज्ञात हो गई । उसने फिर उज्जयिनीमें एक क्षणभर भी रहना उचित न समझा और किसीसे कुछ न कह सुन कर वह वहाँसे चल दिया । धीरे धीरे वह हस्तिनापुर जा पहुँचा ।
उस समय हस्तिनापुरके राजा मानगिरि थे । वे बड़े गर्विष्ठ थे। सबको बड़ी तुच्छ दृष्टि से देखते थे। उनकी रानीका नाम मानवती था। उसके कलावती नामकी एक पुत्री थी। ___ एक दिन मानगिरि बैठे बैठे अपनी पुत्रीके साथ हँसी-विनोद कर रहे थे। उन्होंने हँसी हँसीमें कलावतीसे पूछा-पुत्री ! अच्छा कह तो तेरा सुख मेरे अधीन है या कर्मोंके ? और तू मुझसे सुखकी आशा रखती है या कर्मोंसे ?
कलावतीने निडर होकर कहा-पिताजी ! मनुष्य कर्मोंके सामने क्या कर सकता है ? वह सब कुछ प्रयत्न करता है, कोशिशें करता है, पर होता वही है जो कर्म चाहते हैं । कर्म निरंकुश हैं। उनके सामने किसीकी नहीं चलती । सबको उनसे:हार माननी पड़ती है । कोंकी शक्तिसे ही यह जीव स्वर्ग-नरकमें जाता है, मनुष्य तथा पशु होता है, तब कौन ऐसा बली है जो कर्मोंको दबा सकता है ?
पिताजी ! बहुतसे लोग कहा करते हैं कि ईश्वर संसारका कर्ता है और कर्म कुछ वस्तु नहीं है । पर ऐसा कहनेवालोंसे मैं पूछती हूँ कि जो ईश्वर संसारका कर्ता है, उसके शरीर है या नहीं ? यदि शरीर है, तब तो वह और हम एकहीसे हुए । इस हालतमें जैसे हम प्रत्येक कामको क्रमवार करते हैं वैसे ही उसे भी करना चाहिए । तब मैं पूछती हूँ कि सबसे पहले ईश्वरने क्या बनाया ? और यदि क्रम-क्रमसे उसे