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गुणवर्माकी कथा।
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मरना ही है । अच्छा है जो मेरी मृत्यु भाईको शान्ति उत्पन्न करके हो । यह कह कर वे भक्तामरकी आराधना करनेको बैठ गए । सब ओरसे अपने चित्तको खींच कर उन्होंने उसे परमात्माके ध्यानमें लगाया । उनकी दृढ़ताके प्रभावसे चक्रेश्वरी आई। उसने भयंकर उपद्रव दिखा कर रणकेतुकी सेनाको छिन्न-भिन्न कर दिया और वहाँ गाढ़ा अंधेरा कर दिया । रणकेतुकी सेनाको जिधर रास्ता मिला उधर ही वह भाग खड़ी हुई । अपनी सेनाकी इस प्रकार दुर्दशा देख कर रणकेतु बहुत लज्जित हुआ । अकेले गुणवर्मा द्वारा अपनी सेनाकी इतनी दुर्दशा देख कर रणकेतुने समझा कि अवश्य उसके पास कोई दैवी-बल है । जब वह जंगलमें रह कर भी इतना शक्तिशाली है तब धिक्कार है मेरे राज्यको जो जरासे लोभके लिए मैं अपने भाईकी जान लेनेके लिए उतारू हो गया ! मुझ पापी दुरात्माको हजार बार, अनन्त बार धिक्कार है ! अपनी नीचता पर बहुत पश्चात्ताप कर रणकेतु भाईके पास मिलनेको गया। दोनों भाई बड़े प्रेमसे मिले । रणकेतुने अपने अपराधकी भाईसे क्षमा कराई । इसके बाद वे अपना मुकुट गुणवाके सिर पर रख कर और उन्हें निष्कण्टक राज्य करनेके लिए आशीर्वाद देकर आप वनकी ओर चल दिए और एक परम तपस्वी दिगम्बर मुनिराजके पास जाकर उन्होंने जिनदीक्षा ग्रहण करली । ___गुणवर्माको अपने भाईके वियोगका बहुत दुःख हुआ । उनकी इच्छा नहीं थी कि वे राज्य करें; परंतु उस समय सारा राज्य अस्वामिक हो रहा था, इस कारण संभव था कोई शत्रु चढ़ कर उसे हड़प लेता । अतएव लाचार होकर उन्होंने राज्यभार अपनी भुजाओंपर उठाया और शत्रुओं पर विजय प्राप्त कर वे निष्कण्टक राज्य करने लगे।