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( ५० ) जो बोलता मधुर कोकिल है मधू में, है. हेतु आम्र - कलिका तेरी किये स्तुति, विभो, बहु जन्म के भी,
होते विनाश सब पाप मनुष्य के हैं। भौंरे समान अति श्यामल ज्यों अंधेरा,
होता विनाश रविके करसे निशाका ॥७॥ यों मान, की स्तुति शुरू मुझ अल्पधी ने,
तेरे प्रभाव-वश नाथ, वही हरेगी।
बस एक उसका ||६||
सल्लोक के हृदय को, जल-बिन्दु भी तो,
मोती समान नलिनी - दलपै सुहाते ||८||
दुर्दोष दूर तव हो स्तुतिका बनाना,
तेरी कथा तक हरे जगके अघों को ।
हो दूर सूर्य, करती उसकी प्रभा ही,
अच्छे प्रफुल्लित सरोजन को सरों में || ६ ||
माश्चर्य क्या, भुवन- रत्न भले गुणों से,
तेरी किये स्तुति बने तुझ से मनुष्य ।
क्या काम है जगत् में उन मालिकों का,
जो आत्म-तुल्य न करें निज आश्रितों को ॥ १०॥ अत्यन्त सुन्दर, विभो, तुझको विलोक,
अन्यत्र आँख लगती नहि मानवों की ।
क्षीराब्धि का मधुर सुन्दर वारि पीके,
पीना चहे जलधिका जल कौन खारा ? ॥ ११ ॥ जो शान्ति के सुपरमाणु प्रभो, तनूमें,
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तेरे लगे, जगत में उतने वही थे सौन्दर्य - सार जगदीश्वर, चित्तहर्ता, तेरे समान इससे नहिं रूप कोई ॥ १२ ॥