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(४८) भयानक जय-विपि
अम्भो निधौ क्षुभित भीषण-नक्र-चक्र
पाठीन पीठ-भय- दोल्वण- वाडवाग्नौ ।
रंगतरंग-शिखर-स्थित-यान-पात्रास्वासं विहाय भवतः स्मरणाद्-ग्रजन्ति ॥ ४४ ॥ नक्र चक्र मगरादि मच्छ करि भय उपजावं ।
जामें वड़वा अग्नि बातें नीर जलावे । पार न पावें जास, थाह नहि लहिए जाकी,
गरजे अति गम्भीर लहर की गिनति न ताकी ॥ सुखसों तिरें समुद्र को, जे तुम गुण सुमराहि । लोल कलोलन के शिखर, पार यान ले जाहि ॥
अर्थ - हे तरण तारण देव ! जहाँ भयानक नाकू मगर, बड़े मच्छ ( ह्व ेल शार्क आदि मछली) आदि जलचर जीवों ने क्षोभ मचा रक्खा है तथा वडवा अग्नि से जिसका जल बहुत गर्म हो गया है। ऐसे भयानक समुद्र में विकराल तूफान के समय आपका स्मरण करने से मनुष्य अपने जलयान (जहाज) को उठती हुई तरंगों के ऊपर से बिना किसी कष्ट के ले जाते हैं ।॥ ४४ ॥
ऋद्धि - ॐ ह्रीं अहं णमो अमिय सवाणं ।
मंत्र - ॐ नमो रावणाय विभीषणाय कुम्भकरणाय धिपतये महाबल पराक्रमाय मनश्चिन्तितं कुरु कुरु स्वाहा ।
Even on that ocean, which contains lhe dreadful submarine fire, the agitated and therefore, terrific alligators and fishes fearlessly move those, though their ships are placed on high dashing waves, who but remember Thee. 44.