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( ३० )
शत्रु स्तम्भक
'कुन्दावदात-चल-चामर-चारु - शोभं, विभ्राजते तव वपुः कलधौत-कान्तम् । उद्यच्छशांक- शुचि निर्झर-वारि-धार-
मुच्चैस्तटं सुर- गिरेरिव शात- कौम्भम् ॥३०॥ कुन्द पुहुप सित चमर दुरंत, कनकवरन तुम तन शोभंत । ज्यों सुमेरु तट निर्मल कांति, भरना भरै नीर उमगांति ॥
अर्थ - हे प्रभो ! इन्द्रों द्वारा कुन्द पुष्प के समान सफेद चंमर आप पर दुरते समय आपका तपे हुए सोने के समान शरीर ऐसा शोभायमान होता है जैसे चन्द्र समान निर्मल जल की धारा से सुवर्णमय सुमेरु पर्वत का ऊंचा तट ( किनारा) सुशोभित होता है ||३०||
ऋद्धि-ॐ ह्रीं अहं णमो घोर-गुणाणां ।
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मन्त्र — ॐ नमो द्वे मट्ठे क्षुद्रविघट्ठे क्षुद्रान् स्तम्भय स्तंम्भय रक्षां कुरु कुरु स्वाहा ।
Thy gold-lustred body, to which grace has been imparted by the waving chowries which is as white as the Kunda-flower, shines like the high golden brow of Sumeru-mountain, on which do fall the streams of rivers which are bright with (like) the rising moon. 30.