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(७१) धर्म-देशना के विधान में, था जिनवर का जो ऐश्वर्य । वैसी क्या कुछ अन्य कुदेवों, में भी दिखता है सौंदर्य ॥ जो छवि घोर-तिमिर के नाशक, रवि में है देखी जाती। वैसा ही क्या अतुल कान्ति, नक्षत्रों में लेखी जाती ॥३७॥ लोल कपोलों से झरती है, जहां निरन्तर मद की धार।। होकर अति मदमत्त कि जिस पर, करते हैं भौंरे गुंजार ॥ क्रोधासक्त हुआ यों हाथी, उद्धत ऐरावत सा काल । देख भक्त छुटकारा पाते, पाकर तव आश्रय तत्काल ॥३८॥ क्षत-विक्षत कर दिये गजों के, जिसने उन्नत गण्डस्थल । कांतिमान् गज-मुक्ताओं से, पाट दिया हो अवनी-तल ॥ जिन भक्तों को तेरे चरणों, के गिरि की हो उन्नत ओट । ऐसा सिंह छलाँगें भरकर, क्या उस पर कर सकता चोट ? ॥३६॥ प्रलय काल की पवन उठाकर, जिसे बढ़ा देती सब ओर। फिर्के फुलिंगे ऊपर तिरछे, अंगारों का भी होवे जोर ॥ भुवनत्रय को निगला चाहे, आती हुई अग्नि भभकार । प्रभु के नाम-मन्त्र जल से वह, बुझ जाती है उसही बार ॥४०॥ कंठ कोकिला सा अति काला, क्रोधित हो फण किया विशाल । लाल-लाल लोचन करके यदि, झपटै नाग महा विकराल ॥ नाम-रूप तब अहि-दमनी का, लिया जिन्होंने हो आश्रय । . . पग रख कर निशंक नाग पर, गमन करें वे नर निर्भय ॥४॥ जहां अश्व की और गजों की, चीत्कार सुन पड़ती घोर। शूरवीर नप की सेनाएँ, रव करती हों चारों ओर ॥ . वहां अकेला शक्तिहीन नर, जप कर सुन्दर तेरा नाम । सूर्य-तिमिर सम शूर-सैन्य का, कर देता है काम तमाम ॥४२॥