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(७०) चन्द्र-प्रभा सम झल्लरियों से, मणि-मुक्तामय अति कमनीय। दीप्तिमान् शोभित होते हैं, सिर पर छत्रत्रय भवदीय ॥ ऊपर रहकर सूर्य-रश्मि का, रोक रहे हैं प्रखर-प्रताप । मानों वे घोषित करते हैं, त्रिभुवन के परमेश्वर आप ॥३१॥
ऊँचे स्वर से करने वाली, सर्व दिशाओं में गुञ्जन । करने वाली तीन लोक के, जन-जन का शुभ-सम्मेलन ॥ पीट रही है डंका-"हो सत् धर्म"-राज की ही जय-जय । इस प्रकार बज रही गगन में, भेरी तव यश की अक्षय ॥३२॥ कल्पवृक्ष के कुसुम मनोहर, पारिजात एवं मंदार । गन्धोदक की मन्द वृष्टि करते हैं प्रमुदित देव उदार ॥ तथा साथ ही नभ से बहतो, धीमी धीमी मन्द पवन । पंक्ति बांध कर बिखर रहे हों, मानों तेरे दिव्य-वचन ॥३३॥ तीन लोक की सुन्दरता यदि, मूर्तिमती बन कर आवे । तव भा-मंडल की छवि लखकर, तव सन्मुख शरमा जावे ॥ कोटि सूर्य के ही प्रताप सम, किन्तु नहीं कुछ भी आताप । जिसके द्वारा चन्द्र सुशीतल, होता निष्प्रभ अपने आप ॥३४॥ मोक्ष-स्वर्ग के मार्ग प्रदर्शक, प्रभुवर तेरे दिव्य-वचन । करा रहे हैं 'सत्य-धर्म' के, अमर-तत्त्व का दिग्दर्शन ॥ सुनकर जग के जीव वस्तुतः, कर लेते अपना उद्धार । इस प्रकार परिवर्तित होते, निज-निज भाषा के अनुसार ॥३५॥ जगमगात नख जिसमें शोभे, जैसे नभमें चन्द्रकिरण । विकसित नतन सरसीरुह सम, हे प्रभु तेरे विमल चरण ॥ रखते जहां वहीं रचते हैं, स्वर्णकमल, सुरदिव्य ललाम । अभिनन्दन के योग्य चरण तव, भक्ति रहे उनमें अभिराम ॥३६॥