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________________ * सर्वप्रथम वायुकुमार देव एक योजन प्रमाण भूमि को संवर्तक पवन से काँटे-कंकर रहित बनाकर शुद्ध करते हैं। * तत्पश्चात् भवनपति देव 10,000 चाँदी की सीढ़ियों सहित सोने के कांगरों से युक्त प्रथम चाँदी का गढ़ बनाते हैं । इस प्रथम गढ़ में देव-मनुष्य अपने वाहन छोड़ते हैं। * फिर ज्योतिष देव 5000 सोने की सीढ़ियों सहित रत्नों के कांगरों से युक्त दूसरा सोने का गढ़ बनाते हैं। इस गढ़ में तिर्यंच बैठते हैं। * फिर वैमानिक देव 5000 रत्नों की सीढ़ियों सहित सोने के कांगरों से युक्त तीसरा रत्नों का गढ़ बनाते हैं। इसमें बारह पर्षदा यानि कि साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका (4), चार निकाय के देवों की चार पर्षदा एवं देवियों की चार पर्षदा बैठती है। * प्रत्येक गढ़ में तोरणों से युक्त चार दरवाजे, ध्वज पताकाएँ, सुन्दर वेदिका, धूपदानी, वावड़ियाँ आदि भी होते हैं। * तीसरे गढ़ के मध्य में देवता मणिमय पीठिका पर अशोक वृक्ष की रचना करते है। जो परमात्मा की ऊँचाई : से 12 गुणा ऊँचा तथा एक योजन विस्तार वाला अत्यन्त घटादार होता है। इसके पत्ते कोमल एवं हरे रंग के होते हैं। यह वृक्ष छः ऋतुओं के फूलों से शोभित होता है। साथ ही इस पर अनेक प्रकार के छत्र, घंटियाँ, मालाएँ, ध्वजाएँ, पताकाएँ लटकती एवं लहराती हैं। इस अशोक वृक्ष के ऊपर चैत्य वृक्ष शोभित होता है। चैत्य वृक्ष यानि कि प्रभु को जिस वृक्ष के नीचे केवलज्ञान हुआ हो वह वृक्ष। प्रभु के विहार के समय सबको छाया देता हुआ यह अशोक वृक्ष भी आकाश में प्रभु के साथ-साथ ही चलता है। * प्रभु तीन भुवन के स्वामी है यह सूचित करने के लिए देवता चारों दिशाओं में अशोक वृक्ष के नीचे लटकते तीन छत्र की रचना करते हैं। यह छत्र श्वेत स्फटिक रत्न के बने होते हैं। इनके चारों तरफ सुंदर मोतियों की माला लटकती है। प्रभु के विहार के समय यह छत्र भी आकाश में प्रभु के साथ ही चलते हैं। * इस छत्र के ठीक नीचे चारों दिशाओं में देवता सिंहाकृति वाले चार सिंहासन की रचना करते हैं। जिस पर बैठकर प्रभु देशना देते है। ये सुवर्ण जड़ीत होते हैं और इसके आगे रत्नमय पादपीठ होता है। प्रभु जब विहार करते है तब पादपीठ सहित यह सिंहासन भी आकाश में प्रभु के साथ ही चलता है। * प्रभु जब समवसरण के सन्मुख पधारते है, तब चारों तरफ से असंख्य देव, असंख्य तिर्यंच, करोड़ों मनुष्य आदि प्रभु के दर्शन हेतु दौड़े-दौड़े आते हैं। प्रभु को देखकर चमत्कृत हृदय से गद्-गद् हो,
SR No.002438
Book TitleJainism Course Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManiprabhashreeji
PublisherAdinath Rajendra Jain Shwetambara Pedhi
Publication Year2012
Total Pages200
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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