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अनिमेष नयनों से प्रभु को निहारते हुए प्रणाम करते हैं तथा प्रभु का जयनाद करते हैं। इस जयनाद की ध्वनि से दसों दिशाएँ गुंजित हो उठती हैं । देव-मानव से परिवरित प्रभु क्रमशः विहार करते हुए समवसरण की 20 हज़ार सीढ़ियाँ चढ़कर तीसरे गढ़ में पधारते हैं। वहाँ अशोक वृक्ष को तीन प्रदक्षिणा देकर रत्नमय सिंहासन पर प्रभु पूर्वाभिमुख बिराजमान होते हैं। उसी समय अन्य तीन दिशाओं में देव अत्यंत देदीप्यमान प्रभु सदृश ही तीन प्रतिबिंब की रचना करते हैं। जिससे चारों दिशाओं में प्रभु बिराजमान हो ऐसा प्रतीत होता है। चारों दिशाओं में प्रभु के दोनों तरफ इन्द्र अहोभाव पूर्वक चामर वींजते हैं । इस चामर के बाल श्वेत एवं तेजस्वी होते हैं। दंड सुवर्ण तथा रत्नों का होता है। वींजते समय इसमें से रंगबिरंगी किरणे सतत निकलती रहती है। एक साथ वींजे जाने वाले चामरों को देखकर ऐसा लगता है मानो हिमालय से श्वेत एवं अतिरमणीय झरने बह रहे हो। प्रभु के चरणों में झुकते ये चामर हमें यह सूचित कर रहे है कि जो हमारी तरह प्रभु के चरणों में झुकेंगे वे हमारी तरह ही ऊर्ध्वगति को प्राप्त किये बिना नहीं रहेंगे। * प्रभु के पीछे सूर्यसम देदीप्यमान तेजोमंडल होता है, जिसे भामंडल कहते है। प्रभु का रुप असंख्य सूर्य से भी अधिक तेजस्वी होने से उनके सामने देख नहीं पाते परंतु यह भामंडल प्रभु का तेज अपने में संहरण कर लेता है जिससे हम प्रभु को सुख-पूर्वक देख सकते हैं। * अपने पूर्व के तीसरे भव में, जगत के सर्व जीवों को तारने की भावना के साथ जिन्होंने स्वयं इन जीवों को अपने हृदय में बिठाया हो ऐसे तारक देवाधिदेव के समवसरण में मात्र एक योजन विस्तार वाली भूमि पर प्रभु के प्रभाव से एक साथ करोड़ों देव, करोड़ों मनुष्य तथा करोड़ों तिर्यंच का आसानी से समावेश हो जाएँ तो इसमें आश्चर्य ही क्या ? * परमात्मा जब देशना देते है तब देवता आकाश में अद्भुत वाजिंत्र बजाते हैं जिसे देव दुंदुभि कहते है। इसकी आवाज़ गंभीर तथा अत्यन्त मनोरम होती है। यह बजकर लोगों को प्रेरणा कर रही है कि “हे भव्य प्राणियों! यहाँ आओ, तीन लोक के नाथ यहाँ बिराजमान है। जो दुःख को हरने वाले है तथा शिवपद को देने वाले है। ऐसे नाथ की सेवा करोगे तो शीघ्र मोक्ष को पाओगे।"
इस देवदुंदुभि की आकाशवाणी को सुनकर प्रभु की देशना सुनने हेतु करोड़ों देव, मनुष्य, तिर्यंच पधारते हैं। अब करुणा के सागर, विश्वतारक प्रभु 'नमो तित्थस्स' कहकर भव्य जीवों को प्रतिबोध देने हेतु अर्धमागधी भाषा एवं मालकोश आदि विविध राग में चतुर्मुखी देशना प्रारंभ करते है।
प्रभुजी की वाणी कैसी है ? शक्कर जैसी या द्राक्ष जैसी? अरे! प्रभुजी की वाणी तो अमृत से भी ज्यादा मीठी है। इतना ही नहीं किन्तु 80 वर्ष की बुढ़िया अपने सिर पर काष्ठ का भार उठाकर खड़ी हो, और प्रभु की
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