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________________ अब हमने जिस प्रभु के पास जाने का लक्ष्य बनाया है उन सीमंधर स्वामी भगवान के विहार के अतिशयों की एक झलक एवं समवसरण रचना देखेंगे। ..) प्रभु के विहार का रोमांचक दृश्य C * केवलज्ञान के पश्चात् प्रभु जब विहार करते है तब चारों निकाय के देव भक्ति से भाव-विभोर होकर प्रभु की सेवा में आते है कोई सम्यग् दर्शन की निर्मलता के लिए तो कोई अपने संशयों का समाधान करने के लिए आते-जाते रहते है। इस प्रकार कम से कम करोड़ो देवी-देवता प्रभु की सेवा में तत्पर रहते हैं। * केवलज्ञान प्राप्ति के पश्चात् प्रभु का प्रकृष्ट पुण्योदय शुरु होता है। देवता नव-सुवर्ण कमल की रचना करते हैं जो हज़ारों पंखुड़ियों से सुशोभित होते हैं। ये कमल सुवर्ण के होने के बावजूद भी स्पर्श में मक्खन से भी अधिक कोमल होते हैं ऐसे नव सुवर्ण कमलों की कर्णिका पर पदकमल रखते हुए प्रभु जब विहार करते है तब प्रभु के अतिशय से प्रकृति नव पल्लवित बन जाती है। * प्रभु के विहार के दरम्यान शरद, हेमंत आदि छ: ऋतुओं का एक ही साथ समन्वय होता है, जिससे बाह्य वातावरण अत्यंत आल्हादक बन जाता है। ऐसा लगता है मानो सभी ऋतुएँ प्रभु की सेवा में खिल उठी हो और साथ ही पाँचों इन्द्रियों के मनोहर विषय सर्व जन को अनुकूल बनकर वातावरण को मघ-मघायमान बना देते हैं। * परमात्मा को केवलज्ञान के बाद देव, मनुष्य, तिर्यंच तो अनुकूल बनते ही है लेकिन एकेन्द्रिय की सृष्टि भी प्रभु को अनुकूल बन जाती है। प्रभु जब विचरते है तब मंद-मंद अनुकूल वायु बहने लगती है और सबको शाता पहुँचाती है। परमात्मा ने पूरे जगत को अनुकूल बनकर साधना की थी तो अब प्रभु को पवन तो क्या पूरा जगत अनुकूल बन जाए तो इसमें कौन-सी बड़ी बात है? । * मानो, प्रभु के विहार से पृथ्वी पूजनीय बनी हो इस आशय से देवता एक योजन प्रमाण भूमि पर शीतलसुगंधि जल की वृष्टि करते हैं। इस मार्ग पर चलने वालों को मानो अमृत की वर्षा हुई हो, वैसे आनंद का अनुभव होता है। * प्रभु विहार कर रहे हो या समवसरण में बैठे हो तब देवता एक योजन प्रमाण भूमि पर सर्वत्र जानुप्रमाण पुष्पवृष्टि करते हैं। ये पुष्प पाँच वर्ण के तथा छः ही ऋतुओं के होते हैं। इन पुष्पों द्वारा देवता स्वस्तिक आदि प्रशस्त आकृति की रचना करते हैं। दसों दिशाओं को सुगंधित करते इन पुष्पों पर लाखों लोग चले फिर भी इन पुष्पों को प्रभु के प्रभाव से लेश मात्र पीड़ा नहीं होती तथा उनकी आकृति नहीं बिगड़ती। * पृथ्वीतल पर प्रभु जब विहार करते है तब मानो कि, कंटक भी प्रभु को वंदन कर रहे हो इस प्रकार अपनी
SR No.002438
Book TitleJainism Course Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManiprabhashreeji
PublisherAdinath Rajendra Jain Shwetambara Pedhi
Publication Year2012
Total Pages200
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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