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सीमंधर स्वामी के पास हमें जाना है, विश्व में जीव मात्र सतत सुख की इच्छा रखते है पुरुषार्थ भी सुख के लिए ही करते है। फिर भी कर्माधीन एवं मोहाधीन जीव परिणाम में दुःख को पाता है आखिर ऐसा क्यों होता है ? इसका मूल कारण एक ही है कि "अब तक जीव परमात्मा के समीप नहीं जा पाया।"
__जो-जो आत्माएँ जन्म लेती है उन सबकी मृत्यु निश्चित है। प्रभु की असीम कृपा से इस भव में तो हमें जैन धर्म मिल गया है। यदि हम इस धर्म का एवं प्रभु का सहारा ले ले तो इस एक भव में अनंत भवों के दुःखों से मुक्ति पा सकते है।
हमारी आत्मा शरीर में बिराजमान है। आत्मा सेठ है एवं शरीर उसके रहने का बंगला है। लेकिन आत्मा का यह बंगला नाशवंत है और आत्मा शाश्वत है अर्थात् आयुष्य पूर्ण हो जाने पर शरीर यहीं पर रह जायेगा और आत्मा परलोक प्रयाण कर लेगी।
- किराये का मकान खाली करने के पूर्व ही व्यक्ति अपने रहने के लिए अन्य सुरक्षित घर की व्यवस्था कर लेता है एवं जो नहीं करता वह दु:खी होता है। इसी प्रकार अपना यह शरीर रुपी घर भी नाशवंत होने से छोड़ना पड़ेगा, तो आपने कभी सोचा परलोक में कहाँ जाना है ? कौन-सा शरीर पाना है ? उसकी कोई योजना बनाई ? पहले सोचो! आपको परभव में कहाँ जाना है ? उसका लक्ष्य बनाकर, उसकी योजना बनाओं। आपके सामने चार गति हैं उसमें से :
नरक- यह पाप भोगने का स्थान है। यहाँ जीव आर्त्तध्यान से विशेष कर्मबंध करता है तथा यहाँ धर्म करने का कोई अवसर ही नहीं होता।
तिर्यंच गति- यह भी पाप भोगने का ही स्थान है। महान शुभ योग होने पर समवसरण में प्रभु से अथवा अन्य कोई निमित्त से देशविरति पा सकते है लेकिन ऐसे मौके तिर्यंच गति में बहुत कम मिलते है।
इन दोनों गति की जोड़ी है। एक बार जीव नरक में गया तो वहाँ से तिर्यंच, फिर पुन: पाप बांधकर नरक, वहाँ से तिर्यंच, वहाँ से पुन: नरक, इस चक्कर में से बाहर निकलना मुश्किल है, क्योंकि दोनों पाप भोगने एवं पाप बांधने के स्थान होने से पापी जीव इन गतियों में भटकता रहता है।
देवगति- इस गति में जीव अविरति के उदय से विशेष धर्माराधना या कर्म निर्जरा नहीं कर सकते। विपुल- वैभव, सुन्दर वावड़ियों में जल क्रीड़ा, बाग-बगीचों एवं रत्नों में आसक्ति के कारण मरकर ज्यादातर देव भी पृथ्वी, जल एवं वनस्पति रुप एकेन्द्रिय में उत्पन्न होते हैं । एकेन्द्रिय की कायस्थिति असंख्य
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