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________________ नहीं आता हो वे 4 नवकार गिने। प्रायश्चित में गुरु भगवंत तप देते है। 12 प्रकार के तप में काउस्सग्ग भी एक तप है, इसलिए यहाँ जितना काउस्सग्ग कहा है उतना ही करना। ज्यादा-कम करे तो अविधि है। प्रगट लोगस्स : इसमें 24 तीर्थंकर भगवंत के नाम स्तुति रुप होने से मंगल भूत है। काउस्सग्ग द्वारा प्रायश्चित करने से प्राप्त आनंद की अभिव्यक्ति के लिए 24 तीर्थंकरों के नाम स्मरण रुप लोगस्स बोला जाता है। (नोट : सर्व क्रिया के प्रारंभ में इरियावहियं करनी चाहिए। इस अपेक्षा से चार थुई में इरियावहियं पहले होती है तो यह हेतु पूर्व में समझ ले। त्रिस्तुतिक मत के अनुसार आवश्यक चूर्णि, योगशास्त्र, श्रावक धर्म विधि प्रकरण आदि के आधार से 'करेमि भंते' उच्चरने के बाद इरियावहियं का विधान है।) खमासमणा, इच्छा. बेसणे संदिसाहुँ ? इससे एक आसन पर स्थिर होने का आदेश मांगा गया है। इससे यह सिद्ध होता है कि सामायिक खड़े-खड़े ली जाती है। जो खड़ा हो वही बैठने का आदेश ले सकता है। खमासमणा, इच्छा. बेसणे ठाऊँ ? इससे एक आसन में स्थिर बनने की सूचना है। खमासमणा, इच्छा. सज्झाय संदिसाहुँ ? सामायिक में मुख्यतया स्वाध्याय करना होता है, क्योंकि सामायिक का हेतु ही आत्म-रमणता रुप है, अत: सज्झाय का आदेश मांगा जाता है। फिर चाहे वह स्वाध्याय करें, माला गिनें, काउस्सग्ग करें या प्रतिक्रमण करें, सब सज्झाय (स्वाध्याय) रुप ही है। खमासमणा, इच्छा. सज्झाय करूँ ? इससे सज्झाय करने की बात में दृढ़ता आती है। इसके पश्चात् तीन नवकार स्वाध्याय के प्रतीक रुप गिनी जाती है। उसके बाद दूसरी एवं तीसरी सामायिक बिना पारे ले सकते है। उसमें 'सज्झाय करुं? के बदले 'सज्झाय में हूँ।' ऐसा कहकर - एक नवकार सज्झाय के रुप में गिनी जाती है। ) सामायिकं पारने के हेतु ( सर्व प्रथम खमासमणा - विनय पूर्वक आदेश लेने के लिए। इरियावहियं - यद्यपि सामायिक पाप व्यापार के त्याग की प्रक्रिया है, अत: उसमें आराधना ही करते है। फिर भी प्रमादवश मन-वचन-काया की अशुभ प्रवृत्ति हो जाने की संभावना से यह इरियावहियं की जाती है। खमासमणा इच्छा. मुँहपत्ति पडिलेहन करूँ ?: मुँहपत्ति पडिलेहन जयणा के लिए है। (इस आदेश में सामायिक पारवा मुँहपत्ति पडिलेहन करूँ? ऐसा नहीं बोलना, क्योंकि मुँहपत्ति पडिलेहन करते-करते पुन: सामायिक लेने के भाव आ जाये तो पारने के बदले सामायिक ले भी सकते है। . खनासमणा, इच्छा. सामायिक पारूँ ? : इससे सामायिक पारने का आदेश मांगा जाता है। (0500
SR No.002438
Book TitleJainism Course Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManiprabhashreeji
PublisherAdinath Rajendra Jain Shwetambara Pedhi
Publication Year2012
Total Pages200
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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