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________________ इच्छा करना। 6. विनय न करना। 7. भयभीत बनना। 8. धंधे की चिंता करना। 9 सामायिक के फल में शंका करना। 10. प्रभावना आदि की इच्छा से क्रिया करना । एसए - वचन के दस दोष - 1. मोबाईल अथवा फोन से बातें करना अथवा करवाना, घर के किसी काम का आदेश देना। 2. गलत बातों में हामी भरना। 3. जीव विराधना आदि जिसमें हो ऐसे पापकर्म करना । 4. झगड़ा अथवा क्लेश करना। 5. गृहस्थों का मीठे शब्दों से स्वागत करना। गाली देना। बालक को खेलाना। 8. विक्रिया करना। 9 व्यर्थ में बड़-बड़ करना। 10. हँसी मज़ाक करना S काया के 12 दोष - 1. बार बार एक स्थान से दूसरे स्थान बिना कारण एवं बिना पूंजे जाना। 2. चारों तरफ देखना। 3.पाप कर्म करना। 4. आलस्य मरोडना । 5, अभिनय ( हाव-भाव ) पूर्वक बैठना। 6. दीवार आदि का सहारा लेकर बैठना। 7. शरीर का मैल उतारना । 8. खुजली खुजलाना । 9. पैर पर पैर चढ़ाकर बैठना । 10. कामवासना से अंग खुल्ले रखना। 11. जंतु - कीटाणु के उपद्रव से भयभीत होकर सम्पूर्ण अंग ढँकना । 12. निद्रा करना। इन सब दोषों से रहित शुद्ध सामायिक करनी चाहिए। सामायिक से लाभ निकी ही पार भगवान ने बताया है- एक सामायिक करने से जीव 92, 59, 25, 925पल्योपम अर्थात् असंख्य वर्ष के देवलोक के आयुष्य का बंध करता है अर्थात् सामायिक के प्रत्येक सेकेंड में जीव 3 लाख पल्योपम जितना देवभव का आयुष्य बांध सकता है। दूसरी बात - श्रेणिक महाराजा ने भगवान से नरक निवारण के उपाय पूछें उसमें से एक उपाय था- यदि पुणिया श्रावक की एक सामायिक खरीद ली जाये तो नस्क टल सकती है। श्रेणिक राजा पुनिया श्रावक के घर पहुँचे और सामायिक देने को कहा। चाहे एक सामायिक के लिए राज्य भी दे देना पड़े तो श्रेणिक राजा तैयार थे । पुणिया ने कहा कि " हे राजन् । मैं सामायिक करना जानता हूँ, लेकिन बेचना नहीं। चलो, हम प्रभु से ही इसके बारे में पूछ लेते हैं। दोनों प्रभु के पास पहुँचे एवं एक सामायिक का मूल्य पूछा। प्रभु ने कहा “एक व्यक्ति यदि प्रतिदिन सोने (सुवर्ण) की एक लाख हांडी दान में दे एवं दूसरा मात्र एक सामायिक ही करें, तो उन दोनों में सामायिक करने वाले को ही ज्यादा लाभ मिलता है” अर्थात् एक लाख सोने की हांडी दान देने से भी एक सामायिक का फल अधिक है, अंत: अधिक से अधिक सामायिक करनी चाहिए। किसी एक 6. सामायिक लेने के हेतु माफ के प्रथम गुरु स्थापना : क्रिया की सफलता गुरु की निश्रा में होने से स्थापना की जाती है । गुरु की सानिध्यता का भान साधक को विराधना से बचाने में समर्थ बनाता हैं। जैसे सेठ की उपस्थिति होने मात्र से नौकर
SR No.002438
Book TitleJainism Course Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManiprabhashreeji
PublisherAdinath Rajendra Jain Shwetambara Pedhi
Publication Year2012
Total Pages200
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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