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________________ चारित्रमय 5. शुद्ध श्रद्धामय 6. शुद्ध प्ररुपणामय 7. शुद्ध स्पर्शनामय 8. पंचाचार पाले 9. पलावे 10. अनुमोदे 11. मन गुप्ति 12. वचन गुप्ति 13. काय गुप्ति ए गुप्ता। स्थापनाचार्यजी इन बोलों से पडिलेहन करें। उसकी ठवणी-मुँहपत्ति आदि मुँहपत्ति के प्रथम 25 बोल से पडिलेहण करें। सामायिक के पहले करने योग्य भावना- प्रभु ने कहा है कि सामायिक में श्रावक भी साधु के समान कहलाता है, वैसे सच्चा साधु तो मैं कब बनूँगा? लेकिन 48 मिनिट की सामायिक में तो साधु जीवन का आस्वादन लूँ। जीव जब तक सामायिक में रहता है तब तक सतत अशुभ कर्मों का नाश करता है; अत: मैं इस सामायिक के अवसर को सार्थक बनाऊँ, ऐसे शुभ भाव से आत्मा को वासित करें, जिससे पाप करने की इच्छा का त्याग हो जाये। - घर में पूरे दिन षट्काय जीव के कूटे में जीव पाप का बंध करता है तो कम से कम जब सामायिक करते है, तब इन पापों से बचने का अवसर मिलता है। इस प्रकार मन में शुभ भाव लाकर हर्ष के साथ सामायिक करने के लिए कटिबद्ध बनें। सामायिक का रहस्य - सामायिक का रहस्य करेमि भंते में है। इस करेमि भंते को द्वादशांगी का सार कहा गया है। इसके मुख्य दो अंश है:- एक “सावज्जं जोगं पच्चक्खामि' इससे हम विरति में आते है। पाप से अटकने का यह पच्चक्खाण है। मन-वचन-काय से स्वयं पाप नहीं करना एवं दूसरों से नहीं करवाना। इस प्रकार यह पच्चक्खाण छ: कोटी की शुद्धि वाला कहलाता है। इसमें भूतकाल में किये गये पापों का पश्चाताप वर्तमान में पाप से अटकना एवं भविष्य में पाप नहीं करने की प्रतिज्ञा है, क्योंकि जब तक आत्मा पाप से नहीं अटकती तब तक उसमें समभाव नहीं आ सकता। समभाव की विशेष प्राप्ति के लिए दूसरा अंश है “जाव नियमं पज्जुवासामि' इससे सामायिक में रत्नत्रयी की आराधना करने का विधान है। इसलिए करेमि भंते रुप सामायिक का पच्चक्खाण लेने के बाद पाप का व्यापार करना उचित नहीं है। हमारी बहनें सामायिक में कच्चा पानी, अग्नि, हरी वनस्पति या सचित्त मिट्टी आदि को तो नहीं छूती लेकिन उन्हें यह भी पता होना चाहिए कि जैसे सामायिक में कच्चे पानी आदि का स्पर्श नहीं किया जाता, वैसे ही संसार की बातें, निंदा, संक्लेश, पैसे, मोबाईल, सेल वाली घड़ी आदि का भी स्पर्श सावध होने से नहीं कर सकते है। सामायिक के 32 दोषों का भी त्याग करना होता है। वे इस प्रकार है - ___ मन के दस दोष- 1.शत्रु को देखकर द्वेष-क्रोध करना। 2.अविवेक पूर्ण विचार करना अर्थात् सांसारिक बातों का विचार करना। 3.शुभ भावों का विचार न करना। 4.मन में कंटाला आना। 5.यश की
SR No.002438
Book TitleJainism Course Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManiprabhashreeji
PublisherAdinath Rajendra Jain Shwetambara Pedhi
Publication Year2012
Total Pages200
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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