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रखकर ऊपर टाँग सके। चरवला श्रावक का चिन्ह है। 2. कटासणा-इसे बेटका भी कहते है। यह सामायिक में बैठने के लिए काम आता है। ऊन की उष्मा से जीव-जंतु की सुरक्षा होती है साथ ही पृथ्वी में रहे गुरुत्वाकर्षण से शरीर की ऊर्जा को ज़मीन खींच न ले, इसलिए भी शरीर एवं पृथ्वी के बीच कटासणा बिछाने से शरीर की ऊर्जा नष्ट नहीं होती है। कटासणे पर नाम लिखने पर ज्ञान की आशातना होती है। कटासणा हो सके तो सफेद रखें, जिससे ज़यणा हो सके एवं उसकी किनारी सिली हुई नहीं होनी चाहिए तथा उस पर किसी प्रकार का कसिंदा भी नहीं निकलवाना चाहिए। ___माप- सुख पूर्वक बैठ सके उतना। 3. मुँहपति - भाषा समिति का पालन करने में यह उपयोगी बनती है। सामायिक में संसार संबंधी बातें तो कर ही नहीं सकते। लेकिन जो कुछ स्वाध्याय आदि करते है, उस समय भी मुख से निकलने वाले वायु आदि से सचित्त वायु एवं सांपातिक (उड़ते हुए) जीवों की रक्षा के लिए इसका उपयोग जरुरी है। एक फायदा यह भी है कि मुँहपत्ति सामने आने पर हमें क्रोध आने पर भी हम गाली आदि खराब शब्द नहीं बोल पाते। इसलिए जब भी आपको क्रोध आये, झगड़ने की इच्छा हुई हो तब मुख के सामने हाथ रख लें, क्रोध चला जायेगा।
* मुँहपत्ति में एक तरफ किनारी होती है यानि एक मनुष्य गति से ही मोक्ष में जा सकते है। * मुँहपत्ति को समेटने पर ढाई मोड़ होते है यानि ढाई द्वीप से ही मोक्ष में जा सकते है। * तीन मोड़ दर्शन-ज्ञान-चारित्र के प्रतीक है। * इस पर पेंटिंग व कसिंदा (कढ़ाई) करने से दोष लगता है।
माप-खुद की एक वेंत एवं चार अंगुल यानि चारों तरफ 16-16 अंगुल होनी चाहिए। 16 कषायों को नाश करने के लिए 16 अंगुल की मुँहपत्ति होती है। 4. स्थापनाचार्यजी - इसके दो प्रकार होते हैं। एक तो जो साधु-साध्वी भगवंत के पास होते है। उसे यावत्कथित कहते है। इनके सामने सामायिक करने के लिए स्थापना करने की जरुरत नहीं होती। दूसरी ठवणी पर पुस्तक की स्थापना की जाती है। इसमें ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र के कोई भी साधन से स्थापना कर सकते है पर वर्तमान में नवकार, पंचिंदिय वाली पुस्तिका से ही स्थापना करने की समाचारी है। स्थापनाचार्यजी में सुधर्मास्वामीजी की परंपरा होने से इनकी स्थापना होती है।
माप- इसका कोई निश्चित माप नहीं है। स्थापनाचार्यजी की पडिलेहन 13 बोल से करनी चाहिए। स्थापनाचार्यजी पडिलहन के 13 बोल - 1. शुद्ध स्वरुप के धारक गुरु 2. ज्ञानमय 3. दर्शनमय 4.