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________________ व्याख्यान सुनने का प्रणिधान: सर्वज्ञ होने से जिनका ज्ञान अधूरा नहीं है एवं वीतराग होने से जो झूठ नहीं बोलते, इन दो कारणों से प्रभु की वाणी एकदम सत्य है । प्रभु ने मेरी आत्मा के हित के लिए, मुझे दुःख में से बचाने के लिए अत्यन्त करुणा एवं तारने की बुद्धि से देशना दी है । मैं पूर्ण श्रद्धा से प्रभु की वाणी का श्रवण कर उसके अनुसार आत्मा के हित-अहित का बोध प्राप्त करूँगा। "श्री तीर्थंकर गणधर प्रसादात् मम एष योग: फलतु" ऐसी धारणा कर व्याख्यान श्रवण करें। घर के काम करने से पूर्व जयणाका प्रणिधान: घर के काम में सतत पाप प्रवृत्ति करनी पड़ती है। हे प्रभु! इन कार्यों में हो सके उतनी जयणा करने की पूरी सावधानी रखूगी। जरुरत से ज्यादा पानी, अग्नि आदि का उपयोग नहीं करूंगी। सतत मन में जीव दया का विचार रखकर सब्जी आदि सुधारूँगी। धान्य आदि छान बिनकर उपयोग में लूँगी। किसी में जीव जन्तु उत्पन्न होने से पहले ही उसका उपयोग करूँगी। जाले आदि न बंध जाये उसका ध्यान रखूगी। घर को साफ रखूगी, जयणा के पालन से ही मेरा श्रावक धर्म सार्थक बनेगा इस भावना से श्राविका गृह कार्य करते हुए भी जयणा धर्म का पालन कर सकती है। व्यापार(धंधा) करने से पूर्व नीतिमत्ता का प्रणिधान: हे प्रभु! मुझमें नीति पूर्वक कमाई करने की सद्बुद्धि दे। मैं व्यापार के चक्कर में अपना नैतिक धर्म नहीं छोडूंगा। पूजा-पाठ, रात्रि-भोजन त्याग, प्रतिक्रमण आदि व्यवस्थित हो सके तथा 15 कर्मादान रहित ऐसा नीतिपूर्वक व्यापार करूँगा। इस प्रकार नीति को मन में रखकर व्यापार करने से श्रावक पैसे कमाने पर भी मात्र अल्प बंध ही करता है। पैसा परलोक में साथ आने वाला नहीं हैं, परंतु पैसे के लिए किया गया पाप तो अवश्य साथ में आएगा। नीति से कमाया हुआ धन धर्म-कार्य में उपयोग करने पर विशेष लाभकारी बनता है, अत: मैं नीति को ही व्यापार में मुख्यता दूंगा। ____सामायिक के पूर्व प्रणिधान : प्रभु ने कैसा सुन्दर अनुष्ठान बताया है। छ: काय के जीवों को अभयदान देकर पापों को त्याग करने की अपूर्व साधना मैं करने जा रहा हूँ। मेरा कैसा सद्भाग्य है कि 48 मिनिट तक में साधु के जीवन का आस्वाद करूँगा, सतत अशुभ कर्मों की निर्जरा होगी। मैं इस सामायिक में 32 दोष के त्याग पूर्वक ज्ञान-दर्शन-चारित्र की आराधना करने का संकल्प करता हूँ। सामायिक में बातें, निंदा, विकथा नहीं करूँगा तथा इससे मुझे समभाव की प्राप्ति हो "श्री तीर्थंकर गणधर प्रसादात् मम एष योग: फलतु" सामायिक के पहले अवश्य यह धारणा करें। प्रतिक्रमण करने का प्रणिधान : पाप के कारण जीव को दुर्गति में जाना पड़ता है तो प्रतिक्रमण एवं पश्चाताप से मैं पाप को क्यों न मिटा दूँ ? प्रभु ने पाप को बिना भोगे खत्म कर देने का कितना सुंदर 042
SR No.002438
Book TitleJainism Course Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManiprabhashreeji
PublisherAdinath Rajendra Jain Shwetambara Pedhi
Publication Year2012
Total Pages200
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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