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________________ धर्म क्रिया कैसे करें? योग विंशिका में मोक्ष को सिद्ध करने के लिए धर्म क्रिया में प्रणिधानादि आशय पूर्वक धर्मक्रिया करने का विधान बताया गया है। उसका सामान्य स्वरुप इस प्रकार है 1. प्रणिधान: कोई भी कार्य करने से पूर्व उसका लक्ष्य निर्धारित करना प्रणिधान है । दर्शन, पूजा आदि कार्य करने से पूर्व इनके प्रणिधानों को निश्चित कीजिए। प्रणिधान के बिना क्रिया में स्थिरता नहीं आती। सर्व धर्म क्रियाओं का मुख्य प्रणिधान (लक्ष्य) तो मोक्ष ही है। फिर भी जिस प्रकार एक-एक सीढ़ी चढ़कर ही मंजिल को हासिल कर सकते हैं। उसी प्रकार अहिंसा, मैत्री आदि छोटी-छोटी सिद्धि का बल प्राप्त कर ही पूर्ण सिद्धि को प्राप्त कर सकते हैं। 2. प्रवृत्ति: लक्ष्य प्राप्ति के लिए उसके उपाय में प्रवृत्ति करना। उसमें विधि-जयणा का खास ध्यान रखना चाहिए। प्रत्येक धर्म क्रिया का लक्ष्य हिंसादि पापों से निवृत्ति या राग-द्वेष से निवृत्ति होता है। लेकिन उस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए जो धर्म किया जाता है, उसमें विधि अर्थात् शास्त्रकारों ने जिस प्रकार उस क्रिया को करने को कहा हो, उस प्रकार उसकी जानकारी प्राप्त कर विधि पूर्वक क्रिया करनी चाहिए एवं उसमें जयणा का ख्याल रखना भी अत्यन्त जरुरी होता है। उ.विघ्नजय: धर्म करते यदि विघ्न आए तो, समुचित उपाय करके भी धर्म क्रिया को अस्खलित रखना। 4. सिद्धिः विघ्न आने पर भी जो अडिग रहता है उसको धर्म आत्मसात् बनता है। यह धर्म की सिद्धि है। 5.विनियोग: धर्म स्वभाव सिद्ध बनने के बाद दूसरों को उसका उपदेश देकर धर्म में जोड़ना। इस प्रकार प्रणिधानादि पाँच के उपयोगपूर्वक किया गया धर्म अल्प अवधि में ही मोक्ष को देता है। O) प्रत्येक क्रिया के प्रणिधान (संकल्प). प्रणिधान अर्थात् क्रिया करने से पूर्व करने योग्य संकल्प, जो निम्न प्रकार से किये जा सकते है। हमेशा संकल्प पूर्वक क्रिया को करें। मंदिर जाने का प्रणिधान: हे प्रभु! मैं 84 लाख योनि में भटक-भटक कर आया परन्तु कहीं पर भी मुझे वीतराग प्रभु के दर्शन नहीं हुए। इस जन्म में मेरा कैसा अहोभाग्य है कि मुझे तीन लोक के नाथ देवाधिदेव के दर्शन मिल रहे है। अत: हे प्रभु! मैं आपके दर्शन को शुद्ध चित्त एवं एकाग्रता पूर्वक करुंगा। "श्री तीर्थंकर गणधर प्रसादात् मम एष योग: फलतु" अर्थात् तीर्थंकर प्रभु एवं गणधर भगवंत की कृपा से मेरे यह (मंदिर जाने रुप) योग सफल बने, ऐसी धारणा कर प्रभु दर्शन करें।
SR No.002438
Book TitleJainism Course Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManiprabhashreeji
PublisherAdinath Rajendra Jain Shwetambara Pedhi
Publication Year2012
Total Pages200
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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