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मात्र 1 हाथ का होता है। ___ऊपर के देवलोक में जितने सागरोपम का आयुष्य होता है। उतने हज़ार वर्ष में देवों को एक बार खाने की इच्छा होती है एवं उतने ही पखवाड़ियों में एक बार श्वासोश्वास लेते हैं। जैसे अनुत्तर वासी देवों का आयुष्य 33 सागरोपम का है तो इन देवों को 33 हज़ार वर्ष में एक बार खाने की इच्छा एवं 33 पखवाड़िये में एक बार श्वास लेते हैं एवं पासा पलटते हैं।
देवलोक में इतना सब कुछ होने पर भी शांति नहीं है। देवों में लोभ कषाय ज्यादा होता है। नीचे के देवलोक में देवियों के अपहरण के कारण तथा विमानों के लिए वारंवार झगड़े होते रहते हैं। मानसिक संक्लेश खूब रहता है। कभी-कभी इन्द्रों के बीच लड़ाई हो जाती है। इन्द्र समर्थ होने से युद्ध का स्वरूप बहुत विकराल बन जाता है। उस समय सामानिक देव युद्ध की शांति के लिए तीर्थंकर परमात्मा की दाढ़ा का अभिषेक करके न्हवण जल इन्द्रादि पर छांटते हैं। इससे कषायों की उपशांति एवं युद्ध बंद होता है। तीर्थंकर प्रभु के निर्वाण के बाद उनके अग्नि संस्कार के बाद प्रभु की चार दाढ़ाओं में से ऊपर की दो दाढ़ा सौधर्मेन्द्र एवं इशानेन्द्र लेते है एवं नीचे की दो चमरेन्द्र एवं बलीन्द्र लेते हैं।
O) देवलोक संबंधी विशेष विचारणा . आपने देखा कि ऊपर-ऊपर के देव निर्विकारी होने से अधिक-अधिक सुखी है। ग्रैवेयक एवं अनुत्तर वासी देव तो बिल्कुल कुतूहल आदि से रहित होने से उत्तर वैक्रिय शरीरादि भी नहीं बनाते एवं अपनी शक्ति का कोई उपयोग भी नहीं करते। इतने अनासक्त होते हैं। मात्र शय्या में सोते-सोते सतत आत्मा का चिंतन-मनन करते रहते हैं, उसमें कभी शंका हो तो मन से ही वहाँ रहकर विचरते प्रभु से प्रश्न करते हैं एवं भगवान द्रव्य मन से उनको जवाब देते हैं। ये जीव अत्यन्त सुखी होते हैं। वहाँ मोतियों के झुमर होते हैं। एक से दूसरे मोती के टकराने से अति अद्भुत संगीत पैदा होता है।
ये जीव (ग्रैवेयक,अनुत्तर वासी) कोई जीव की हिंसा तथा झूठ आदि पाप कभी नहीं करते हैं, इतना सब कुछ होते हुए भी भव-स्वभाव से ही इनको किसी प्रकार का पच्चक्खाण नहीं होने से इनका सुख सर्वविरतिधर साधुभगवंत की अपेक्षा से बहुत थोड़ा है। अविरति वाले पौद्गलिक सुख की अपेक्षा विरति वाला आध्यात्मिक सुख कई गुणा अधिक होता है। उससे भी वीतराग का सुख अनंतगुणा है, अत: सुखी बनने का उपाय देवलोक न होकर संयम ही है। Oकौन से जीव कौन से देवलोक तक जा सकते है ?.
__ - ज्योतिष चक्र तक
तापस