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केश (बाल), हड्डी, मांस, नख, रोम, खून, चरबी, चमड़ी, मूत्र एवं विष्टा नहीं होती। अर्थात् उनका शरीर अशुचि पदार्थों से न बनकर विशिष्ट होता है। केशादि न होने पर भी इनकी काया अति सुंदर लगती है। उत्तर वैक्रिय शरीर बनाते समय शौक से केशादि भी बनाते हैं। इनका शरीर वैक्रिय (उत्तम) पुद्गलों से बना होता हैं। विशिष्ट प्रकार की क्रिया (अनेक रूप बनाने में) करने में समर्थ होने से इनका शरीर वैक्रिय कहलाता है। यह शरीर अत्यन्त निर्मल कांतिवाला सुगंधि श्वासोश्वास वाला, मैल, पसीने से रहित, आँखों के पलकारे से रहित एवं जमीन से 4 अंगुल ऊँचा रहता है। देवताओं को कवल आहार नहीं होता। मात्र खाने की इच्छा करने पर जिस वस्तु को खाने की इच्छा हुई हो उन पुद्गलों से उनका पेट भर जाता है एवं उस वस्तु की एक ओडकार भी आ जाती है। इस कारण उन्हें नवकारशी जितना छोटा पच्चक्खाण भी भव-स्वभाव से नहीं होता।
देवलोक में रात-दिन नहीं होते। फिर भी विमानों एवं देवों के शरीर के अतितेज के कारण हमेशा सूर्य से भी अधिक प्रकाश रहता है। देवलोक में विकलेन्द्रिय की उत्पत्ति नहीं होती तथा धूल आदि भी नहीं उड़ती, इसलिए शाश्वत पदार्थ हमेशा कांतिवाले ही रहते है, बिगड़ते नहीं है।
देवलोक में देवियों की उत्पति एवं भोग देवियों की उत्पत्ति मात्र दो देवलोक तक ही है। ये देवियाँ दो प्रकार की है। 1. परिगृहिता- देव की परिणीता 2.अपरिगृहिता- वेश्या जैसी देवी।
अपरिगृहिता देवियों को देव 8वें देवलोक तक ले जा सकते हैं। 8वें देवलोक के ऊपर देवियों का गमनागमन नहीं होता। देवों में भोग
1-2 देवलोक तक देव मनुष्य की तरह काया से देवी के साथ भोग भोगते हैं। 3-4 देवलोक के देव, देवी के स्पर्श से तृप्त हो जाते हैं। 5-6 देवलोक के देव, देवी के रूप को देखकर तृप्त बन जाते हैं। 7-8 देवलोक के देव, देवी के शब्द सुनकर तृप्त बन जाते हैं। 9-10-11-12 देवलोक के देव मन में देवी की कल्पना से ही तृप्त हो जाते हैं।
इससे ऊपर ग्रैवेयक तथा अनुत्तर के देवों को भोग का विचार भी नहीं आता। ऊपर-ऊपर के देवलोक में ऋद्धि एवं आयुष्य अधिक-अधिक होने पर भी स्वाभाविक रूप से ही वासना एवं भोग का प्रमाण कमकम हो जाता है। वास्तव में भोग-विलास का त्याग करने पर ही सच्चे सुख का अनुभव हो सकता है।
ईशान देवलोक तक के देवों का शरीर 7 हाथ ऊँचा होता है। फिर घटता-घटता अनुत्तर देवों का शरीर