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________________ चौदह राजलोक अधोलोक तिर्च्छालोक के नीचे अधोलोक में सात नरक हैं। यह सातों नरक पृथ्वी उल्टे छत्र (A) के आकार वाली है। इन नरक पृथ्वियों के नीचे अनुक्रम से. 20,000 योजन तक घनोदधि (घाटा पानी) (B) फिर असंख्य योजन तक • A घनवात ( घाटा पवन) (C), उसके बाद असंख्य योजन तक तनवात (पतला पवन) (D), बाद में असंख्य योजन तक आकाश (E) रहा हुआ है। इस प्रकार प्रथम नरक पृथ्वी से सातवीं नरक पृथ्वी तक समझना । इन नरकों में संख्याता एवं असंख्याता योजन वाले नरकावास होते हैं। ये कुल नरकावास 84 लाख है। इन नरकावासों में नारकी जीवों के उत्पन्न होने के गोखले (कुंभी) होते हैं। यही उनकी योनि है। पापी जीवनरक में जाते हैं। वहाँ उत्पन्न होते ही अंतर्मुहूर्त (48 मिनट) में शरीर गोखले से भी बड़ा हो जाने से नीचे गिरने लगता है। उतने में तुरंत परमाधामी वहाँ आकर पूर्वकृत कर्म के अनुसार उनको दुःख देने लगते हैं। जैसे मद्य पीने वाले को गरम सीसा पीलाते हैं। परस्त्री लंपटी को अग्निमय लोह पुतली के साथ आलिंगन कराते हैं, भाले से वींधते हैं, तेल में तलते हैं, भट्टी में सेकते हैं, घाणी में पीलते हैं, करवत से काटते हैं, पक्षी सिंह आदि का रूप बनाकर पीड़ा देते हैं, खून की नदी में डूबाते हैं, तलवार के समान पत्ते वाले वन एवं गरम रेती में दौड़ाते हैं, वज्रमय कुम्भी में जब इनको तपाया जाता है तब वे पीड़ा से 500 योजन तक उछलते हैं। उछलकर जब नीचे गिरते हैं तब आकाश में पक्षी एवं नीचे शेर - चीता आदि मुँह फाड़कर खाने दौड़ते हैं। इस प्रकार अति भयंकर वेदना होती हैं। विशेष में B त्रस नाड़ी D प्रथम तीन नरक में - क्षेत्रकृत, हथियार से परस्पर लड़ाई एवं परमाधामी कृत ऐसे तीन प्रकार की वेदना होती हैं। चौथी-पाँचमी नरक में - क्षेत्रकृत तथा परस्पर हथियार से लड़ाई होती हैं। छट्ठी-सातवीं नरक में - क्षेत्रकृत तथा परस्पर हथियार बिना लड़ते हैं एवं एक दूसरों के शरीर में प्रवेश करके भयंकर पीड़ा करते हैं। 023
SR No.002438
Book TitleJainism Course Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManiprabhashreeji
PublisherAdinath Rajendra Jain Shwetambara Pedhi
Publication Year2012
Total Pages200
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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