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O) संप्रति महाराजा . सम्राट अशोक के पौत्र तथा राजा कुणाल के पुत्र सम्राट संप्रति जगत के सर्वकालीन महान राजाओं में गौरवमय स्थान को प्राप्त है। संप्रति महाराजा अपने दादा सम्राट अशोक की तरह प्रजावत्सल, शांतिप्रिय व अहिंसा के अनुरागी और प्रतापी सम्राट थे। एक बार संप्रति महाराजा अपने महल के झरोखे में बैठे हुए थे। राजमार्ग पर जाते हुए आचार्य सुहस्ति सूरिजी को देखते ही संप्रति महाराजा को ऐसा अनुभव हुआ कि मानो वे इन साधु पुरुष से वर्षों से परिचित है। धीरे-धीरे पूर्व जन्म के स्मरण संप्रति महाराजा के चित्त में उभरने लगे। महल से नीचे उतरकर आचार्यश्री के पास जाकर चरणों में नतमस्तक हुए और उन्होंने गुरु महाराज को महल में पधारने के लिए निवेदन किया।
___महल में पधारने के बाद संप्रति महाराजा ने पूछा " गुरुदेव मुझे पहचाना?" ज्ञानी आचार्य सुहस्तिसूरि ने कहा- “हाँ वत्स! तुझे पहचाना, तू पूर्वजन्म में मेरा शिष्य था।' यह सुनकर संप्रति ने कहा"गुरुदेव आपकी कृपा से ही मैं राजा बना हूँ। मैं तो कौशंबी का एक भिखारी था। जब एक बार कौशंबी नगरी में भीषण दुष्काल पड़ा था, तब भी श्रावकगण साधुओं की उत्साह सहित वैयावच्च करते थे। उस समय मुझे रोटी का टुकड़ा भी नहीं मिलता था। मैंने साधुओं के पास भिक्षा मांगी, तब आपने बताया कि यदि मैं दीक्षा लूँ, तभी आप मुझे भोजन दे सकते हैं। खाने के लिए मैंने दीक्षा ली और दीक्षा लेकर डटकर भोजन किया। रात को मेरे पेट में पीड़ा हुई और वह बढ़ती ही गई। तब सभी श्रावक मेरी सेवा में लग गए। यह देख मैं सोचने लगा कि कल जो मेरे सामने भी नहीं देखते थे वे श्रेष्ठी आज मेरे पैर दबा रहे हैं। धन्य है इस साधु वेश को। मेरी पीड़ा बढ़ती गई तब आपने मेरी समता और समाधि टिकाने के लिए मुझे नवकार मंत्र सुनाया। गुरुदेव आपकी कृपा से मेरा समाधिमरण हुआ और मैंने इस राजकुटुंब में जन्म लिया। यह राज्य मैं आपको समर्पित करता हूँ। इसे स्वीकार कर आप मुझे ऋणमुक्त करें।"
अपरिग्रहधारी विरक्त मुनि भला राज्य का क्या करे ? आचार्यश्री ने उसे जैन धर्म का उपदेश दिया। संप्रति महाराजा धर्म के सच्चे आराधक और महान प्रभावक बनें। भारत की सीमा से परे जैन धर्म का प्रचार किया। गुरुदेव के पूर्वजन्म के और इस जन्म के उपकारों को संप्रति महाराजा ने शिरोधार्य किए।
संप्रति महाराजा ने कई व्यक्तियों को साधु के आचार सिखाकर साधु का वेश पहनाकर अनार्य देश में भी भेजे। उनके द्वारा अनार्य लोगों को भी साधु के आचारों से अवगत करवाया और उसके बाद वहाँ भी सच्चे साधुओं का विहार करवाया।
एक बार युद्ध में विजयी बनकर संप्रति महाराजा अपनी राजधानी उज्जैनी लौटे। चारों ओर हर्षोल्लास का वातावरण था , परन्तु संप्रति महाराजा की माता कंचनमाला के चेहरे पर घोर विषाद एवं निराशा के
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