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चैत्यवंदन आदि करके धन्य बनें। महामंत्री बाहड़ शिल्पकारों को पाटण से अपने साथ लेकर आए थे। वही पर महामंत्री ने चारों तरफ से मंदिर का निरीक्षण करके, विचार-विमर्श कर, जीर्णोद्धार का कार्य शुरू करवाया। शत्रुजय पर्वत पर मंदिर दो वर्ष में तैयार हुआ। बाहड़ मंत्री को समाचार मिले कि मंदिर बन गया है। तब मंत्री ने समाचार देने वाले कर्मचारी को सुवर्ण मुद्रा भेंट में दी।
दूसरे दिन ही समाचार आए कि जोरदार (घनघोर) पवन के कारण मंदिर का बहुत ज्यादा भाग टूट गया है। बाहड़ मंत्री जल्दी से गिरिराज पर चढ़े। शिल्पकार निराश होकर मंदिर के टूटे पत्थरों को देख रहे थे। मंत्रीश्वर ने पूछा -यह कैसे हुआ ? |
मुख्य शिल्पकार - “यह पहाड़ ऊँचा है। पहाड़ के मंदिरों में भमती (प्रदक्षिणा) नहीं बनानी चाहिए और हमने बनाई। उसमें हवा भर जाने के कारण मंदिर टूट गया।
बाहड़ मंत्री - “कोई बात नहीं, फिर से बिना प्रदक्षिणा वाला मंदिर बनाओ।" शिल्पकार - “पर मंत्रीश्वर प्रदक्षिणा के बिना मंदिर कैसे बना सकते है ?" बाहड़ मंत्री - “क्यों ?क्या तकलीफ है ?"
शिल्पकार - "बहुत बड़ी तकलीफ है, मंत्रीश्वर। बिना प्रदक्षिणा के मंदिर बनाने वालों का वंश निर्वंश होता है। उनकी वंश वृद्धि नहीं होती।
____ महामंत्री ने हँसते-हँसते कहा- “बस! यही तकलीफ है ना? इसमें चिंता करने की क्या बात है? आप दुःखी क्यों होते हो? भव्य मंदिर बनना ही चाहिए। मैं निर्वंश रहूँ उसकी मुझे चिंता नहीं है। किसको पता संतान संस्कारी होगी या कुसंस्कारी? और कौन जानता है कि मेरी संतान मेरी कीर्ति को उज्जवल करेगी ही? संतान खराब होगी तो मेरी कीर्ति को धूल में मिला देगी। इसलिए मैं निर्वंश रहूँ तो भी चलेगा। यह मंदिर ही मेरे लिए सब कुछ है, फिर से शुरू करो, जैसे हो वैसे मंदिर जल्दी पूरा होना चाहिए'। महामंत्री की निष्काम भक्ति की बात गुजरात और सौराष्ट्र के घर-घर में होने लगी। बाहड़ मंत्री ने मंदिर का काम पूर्ण करवाया। आदिनाथ दादा की प्रतिमा की प्रतिष्ठा करवाने के लिए महामंत्री ने स्वयं के आराध्य गुरुदेव श्री हेमचंद्राचार्य को प्रेम-पूर्वक विनंती की । विक्रम संवत् 1211 के शुभ दिन आचार्य देव ने बहुत ही धूमधाम से प्रतिष्ठा की। इस महोत्सव में शामिल होने के लिए पूरे भारत से हज़ारों भाविक आत्माएँ भी आई। सब ने बाहड़ मंत्री की जिन भक्ति, पितृभक्ति और दान शूरता की दिल खोल कर प्रशंसा की। सब के मुख से एक ही बात निकल रही थी 'धन्य पिता ! धन्य पुत्र!'। इस प्रकार बाहड़ मंत्री द्वारा शत्रुञ्जय का तेरहवाँ जीर्णोद्धार हुआ।
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