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________________ बादल छाए हुए थे। संप्रति महाराजा ने माता के पास आकर प्रणाम करके व्यथा का कारण पूछा- “हे माता! आज मेरी विजय से सारा नगर हर्षोल्लास में डूबा हुआ है, तब आप क्यों शोक मग्न लग रही है ? पुत्र जब कमाई करके घर आता है, तब माता हर्षित होती है। मैं तो भरत के तीन खंडों पर विजयी होकर लौटा हूँ फिर भी आपको हर्ष क्यों नहीं है?" संप्रति महाराजा मानते थे कि मुझे देखकर संपूर्ण जगत भले ही खुश होता हो, परन्तु यदि मेरी माता ही खुश न हो तो अन्य सभी का हर्ष मेरे लिये निरर्थक है। कैसी मातृभक्ति है ? ___यह माता परम श्रद्धालु श्राविका थी, अत: दुनिया से निराली थी। दुनिया पुत्र के देह को देखती है, जबकि श्राविका उसकी आत्मा को देखती थी। विवेकी माता ने कहा, “हे पुत्र! राज्य तो तेरी आत्मा को नरक में ले जाने वाला है। तेरे जन्म-मरण के दुःखों में वृद्धि करने वाला है। मैं यदि तेरी सच्ची जनेता हूँ, तो ऐसे राज्य की कमाई से मुझे हर्ष कैसे हो सकता है? मुझे हर्ष तब होगा, जब तूं जिस पृथ्वी को जीत कर आया है उस समग्र पृथ्वी को जिनालयों से सुशोभित कर देगा। तेरी संपत्ति से गाँव-गाँव में जिन मंदिर खड़े कर देगा।" कैसी होगी ये राजमाता! बचपन से ही उन्होंने अपने पुत्र को कैसे संस्कार दिये होंगे? उन पवित्र संस्कारों का पान करने वाले सुपुत्र माता को शोकमग्न रहने देंगे क्या? उसकी इच्छाओं का अनादर करेंगे क्या? कदापि नहीं। ___ संप्रति महाराजा ने माता के मुख से निकलते हुए वचनों को शिरोधार्य किये और वहीं पर संकल्प कर लिया ‘सारी पृथ्वी को जिनमंदिरों से मंडित कर देने का'। ज्योतिषियों को बुलवाया और अपना आयुष्य पूछा। उत्तर मिला - राजन्, आपका आयुष्य अभी तो 100 वर्ष शेष है। “100 वर्ष के दिन कितने?" “राजन्!, 36 हजार" फिर नित्य का एक जिनमंदिर बँधवाने का संकल्प करके संप्रति महाराजा ने पृथ्वी को मंदिरों से मंडित करने का कार्य प्रारंभ किया। प्रतिदिन एक जिनालय के खनन मुहर्त होने के समाचार सुनने के पश्चात् ही माता को प्रणाम करके भोजन करते थे। माता भी हर्षित होकर सदैव पुत्र की ललाट पर तिलक करके मंगल करती थी। इस प्रकार संप्रति महाराजा ने 36000 नए जिनालय बनवाए और 89 हजार जिन मंदिरों का जीर्णोद्धार करवाया। अर्थात् कुल मिलाकर सवा लाख जिन मंदिर बनवाए और सवा करोड़ जिन प्रतिमाएँ भरवाई। इसके अतिरिक्त अपने राज्य में कोई जीव भूखा या दुःखी न रहे, उसके लिए 700 दानशालाएँ शुरू करवाई। आध्यात्मिक प्रतिज्ञा पत्र सिद्धशीला यह मेरा देश है। अरिहंत भगवान मेरे देव है। पंच महाव्रत के पालक साधु-साध्वीजी मेरे गुरु है। अरिहंत देव की आज्ञा रूप मेरा धर्म है। मैं मेरे माता-पिता, वडील, विद्यागुरु के प्रति हमेशा विनयवान रहँगा। नित्य उपाश्रय तथा पाठशाला जाऊँगा। मेरे रग-रग में जैनत्व की खुमारी सदा रखूगा। सर्व जीवों के प्रति मैत्री भाव रखूगा। “संसार छोड़ने जैसा है, संयम लेने जैसा है, मोक्ष प्राप्त करने जैसा है" यह मेरा मुद्रा लेख है। मैं मेरे धर्म को बहुत चाहता हूँ। उसके समृद्ध एवं वैविध्य पूर्ण जायदाद का मुझे गर्व है। मैं जिनशासन का वफादार रहूँगा।
SR No.002438
Book TitleJainism Course Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManiprabhashreeji
PublisherAdinath Rajendra Jain Shwetambara Pedhi
Publication Year2012
Total Pages200
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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