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होगी। यदि मैं तीर्थंकर का रूप बनाऊँगा तो सुलसा अवश्य दर्शन करने आयेगी। चौथे दिन चौथे दरवाज़े पर समवसरण की रचना कर, अंबड पच्चीसवें तीर्थंकर के रूप में उसमें बिराजमान होकर देशना देने लगा। अंबड को पूरा विश्वास था कि तीर्थंकर का नाम सुनकर सुलसा जरुर आएगी, परंतु दूसरे सारे लोग आए पर सुलसा नहीं आई। इस तरफ सुलसा की सखी ने सुलसा से कहा - सुलसा, आज तो चल तेरे भगवान आए है। तब सुलसा ने दृढ़ता पूर्वक कहा- “सखी, यह हो ही नहीं सकता कि मेरे प्रभु पधारें और मेरे हृदय में स्पंदना न हो, मेरे साढ़े तीन क्रोड़ रोम राजी प्रफुल्लित न हो, अत: यह मेरे भगवान हो ही नहीं सकते। सखी ने कहा “यह तेरे महावीर नहीं परंतु पच्चीसवें तीर्थंकर है" सुलसा ने कहा - "मेरे प्रभु वीर ने बताया है कि एक अवसर्पिणी में 24 तीर्थंकर ही होते हैं, अत: यह तो कोई बहरुपिया है जो लोगों को ठगने की कोशिश कर रहा है। मेरा यह मस्तक सच्चे तीर्थंकर महावीर स्वामी के अलावा और किसी के सामने नहीं झुकेगा।"
धन्य है सुलसा को! धन्य है उसके दृढ़ सम्यक्त्व को! वह अंबड की सारी परीक्षाओं में खरी उतरी। अंबड ब्रह्मा, विष्णु, महादेव आदि के रूप बनाकर भी उसे डिगा न सका। इतना ही नहीं उसने 25 वें तीर्थंकर का रूप बनाया। हाँथ जोड़ना या पैर पड़ना तो दूर परंतु वह एक बार उसे देखने तक नहीं गई। इससे सुलसा ने जिनवाणी पर अपनी अखूट श्रद्धा का परिचय दिया। यह सारे चमत्कार सुलसा की श्रद्धा को नहीं हिला पाए।
अंत में अंबड श्रावक को भी हार माननी ही पड़ी। सुलसा के सम्यक्त्व के आगे वह नतमस्तक हो गया। अब उसे पता चला कि आखिर परमात्मा ने सुलसा को ही धर्मलाभ क्यों दिया? दूसरे दिन अंबड श्रावक का वेश धारण कर सुलसा के घर गया। वहाँ जाकर उसने कहा, “हे भद्रे! सचमुच आपकें सत्त्व को, आपके सम्यक्त्व को धन्यवाद है। शायद आपके अखण्ड, अडिग सम्यक्त्व को देखकर ही परमात्मा ने मेरे द्वारा आपके लिए धर्मलाभ कहलवाया है।' यह सुनते ही सुलसा के चेहरे पर चार चाँद खिल गए। उसके साड़े तीन क्रोड़ रोम राजी प्रफुल्लित हो उठे। उसे ऐसा लग रहा था मानो उसे जगत की सारी खुशियाँ, सारे सुख, सारी समृद्धि प्राप्त हो गई हो। उसकी खुशियाँ उसके आँखों से हर्ष के आँसू के रूप में बहने लगी। हर्षातिरेक में उसने कहा- “क्या! मेरे प्रभु ने मुझे धर्मलाभ भेजा है। प्रभु! आपने मुझे, मुझ अभागन को याद किया? मुझ पुण्यहीन को अपने स्मरण में रखकर आपने मेरे जीवन को धन्य बना दिया।" इतना कहकर जिस दिशा में प्रभु विचर रहे थे। उस दिशा में सात कदम आगे जाकर परमात्मा की स्तुति करते हुए उसने कहा- “मोहराजा के बल का मर्दन कर देने में धीर, पाप रूपी कीचड़ को स्वच्छ करने में निर्मल जल समान, कर्म रूपी धूल को हरने में हवा के समान ऐसे हे वीर प्रभु! आप सदा जयवंत रहो। हे प्रभु आपकी जय हो! विजय हो! जयजयकार हो!" अंबड तो सुलसा के आनंद को देखता ही रह गया। मात्र परमात्मा का एक धर्मलाभ और इतनी संवेदना, उसकी अनुमोदना करते हुए वह स्वस्थान पहुँच गया।
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