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उनके वारिस इसके बदले पैसे लेते हैं। ऐसे कपूत भी होते है क्या ?" दूर खड़ी श्रीदेवी ने भी यह दृश्य देखा। जैसे ही विमलशाह पास में आए श्रीदेवी ने कहा “नहीं, नहीं, ऐसी संतान से तो संतान न हो यही अच्छा है। संतान यदि कपूत होगी, तो हमारे किए कराए पर पानी फेर देगी। कहीं अपनी संतान भी आबू के मंदिर के बाहर बैठकर दर्शनार्थियों के पास से पैसा लेकर कहे कि मैं उनकी संतान हूँ तो ? नहीं, ऐसी संतान हमें नहीं चाहिए। " इस प्रकार उन्होंने निश्चय किया कि " देवी के पास संतान न हो यही वरदान माँगना । "
मध्यरात्री में 2 मिनट बाकी थी और दोनों देवी की मूर्ति के सन्मुख जाकर बैठ गये। ठीक मध्यरात्री में 7 श्रीफल चढ़ाये, माँ को चुंदड़ी ओढाई ।
माँ ने साक्षात् प्रगट होकर श्रीदेवी से कहा- “मांग बेटी क्या वरदान चाहिए ?" श्रीदेवी ने धीमे स्वर से कहा - "माँ यही वरदान चाहिए कि हमें संतान न हो" देवी ने विमलशाह के सामने देखा ।
विमलशाह ने कहा चाहिए" दोनों की भावना सुनकर माँ ने कहा - "तथास्तु”।
इस दंपति के सत्त्व का गीत गाता हुआ वह जिनालय 'विमल वसही' के नाम से आबू की धरती पर आज भी शोभित है।
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माँ ! हम वरदान मांगते हैं कि हमें वांझणे रखना। हमें वारस नहीं आरस
भीमा कुंडलिया
बाहड़ मंत्री पाटण से सिद्धाचल का संघ लेकर आए थे। संघ में आने वाले सब यात्रिकों ने शत्रुंजय की यात्रा की। सबको यह समाचार मिल गए थे कि बाहड़ मंत्री शत्रुंजय पर आदिनाथ दादा का मंदिर पाषाण (पत्थर) से बनायेंगे और इसमें लाखों का खर्च करेंगे।
इस प्रसंग पर कितने ही श्रेष्ठियों ने विचार किया कि इस पुण्य के काम में हम भी कुछ भाग ले । यह विचार कर कितने ही श्रेष्ठियों ने बाहड़ मंत्री के पास आकर विनंती की कि "आप गिरिराज पर भव्य जिन मन्दिर के नवनिर्माण के लिए सम्पन्न हो परन्तु इस पुण्य के काम में हमें भी भागीदार बनाओं । हमें फूल नहीं तो फूल की पंखुड़ी का लाभ दे, ऐसे हमारे भाव है। हम जानते हैं कि हमारी यह विनंती आप स्वीकार करेंगे और हमें भी इस पुण्य का लाभ लेने की आज्ञा देंगे। "
महामंत्री ने इस विनंती को सहर्ष स्वीकार किया। दूसरे दिन ही शत्रुंजय की तलेटी पर विशाल सभा मिली। उसमें स्वयं महामंत्री ने घोषणा की कि - " जो कोई भी भाई-बहन शत्रुंजय पर बन रहे भव्य जिन मन्दिर के नवनिर्माण कार्य में अपने धन का सद्व्यय करना चाहते हैं वे प्रेम से स्वयं के धन का दान दे सकते
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