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4 भीलनी भाव से भजे भगवान! एक जंगल में भील-भीलनी रहते थे। एक दिन जंगल में एक जैनमुनि का आगमन हुआ। मुनिराज ने उन दोनों को जिनपूजा की महिमा समझायी। भीलनी का हृदय भक्ति से भर गया। वह जंगल में स्थित जिनालय में नित्य ऋषभदेव भगवान की पूजा करने लगी। भील ने उसे टोका-'अरे पगली ! ये तो बनियों के भगवान हैं। हम इन्हें क्यों पूजे? थोड़ी समझदार बन और यह पूजा-वूजा बंद कर'। भीलनी न मानी। इस प्रकार कुछ वर्षों के बाद भीलनी मरकर समीप के नगर में राजपुत्री के रूप में जन्मी और युवावस्था में
आयी। वह एक बार महल के झरोखे में बैठी थी। उसने राह से गुजरते हुए भील को देखा और उसे जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हुआ। गत जन्म के पति को बुलाकर उपदेश दिया। पूर्वभव का स्वरूप समझाया और जिनपूजा में स्थिर किया। राजपुत्री मरकर स्वर्ग में गई और भील ने भी आत्मकल्याण किया।
O) प्रभु भक्त जगड़ (. जगड़ महुवा के हंसराज धरु का पुत्र था। एक बार वह सिद्धाचल तीर्थ की यात्रा करने गया था। दादा के दरबार में सम्राट कुमारपाल महाराजा के संघ की तीर्थमाला का चढ़ावा बोला जा रहा था।
___ चार लाख... आठ लाख... बारह लाख....धीरे-धीरे चढ़ावा आगे बढ़ा। चौदह लाख...सोलह लाख.... बीस लाख... इतने में जगड़ ने सबको आश्चर्य चकित करते हुये हाइजंप लगाते हुए कहा “सवा करोड़!'' यह संख्या सुनते ही सब हिल गये। सभी एकटक से मैले कपड़े पहने हुये जगड़ को देखने लगे। कुमारपाल महाराजा ने मंत्रियों को इशारा किया कि जरा छानबीन तो करो। इतने में तो जगड़ स्वयं आगे आया और अपने उत्तरीय वस्त्र के छोर पर बांधा हुआ सवा करोड़ रूपये का माणिक्य निकाल कर कुमारपाल महाराजा के हाथ में अर्पण किया। तेजोमय माणिक्य देखते ही कुमारपाल ने पूछा - ..
_ “ऐसी अद्भुत चीज़ कहाँ से लाये हो ?” “महाराज ! मेरे पिता ने समुद्रयात्रा कर विदेशों में धंधा किया था। खूब धन कमाया और वापस लौटे। विदेश जाने से जो विराधना हुई, इससे उनका अन्त:करण व्यथित हो उठा। कमाये हुए धन में से उन्होंने सवा-सवा करोड़ के पाँच माणिक्य खरीदें और मृत्यु के वक्त मुझे सौंपते हुए कहा - 'बेटा ! सवा करोड़ का एक माणिक्य शत्रुजय तीर्थाधिराज दादा ऋषभदेव को चढ़ाना, एक माणिक्य आबालब्रह्मचारी गिरनारमंडण श्री नेमिनाथ भगवान को चढ़ाना, एक माणिक्य देवपट्टन (चन्द्रप्रभास पाटण) में चन्द्रप्रभस्वामी को चढ़ाना और बचे हुए दो रत्न अपने जीवन निर्वाह के काम में ले लेना। महाराज ! पिताजी की आज्ञानुसार तीनों स्थानों पर तीन माणिक्य चढ़ा दिए हैं। मेरे स्वयं के लिए जो दो रत्न बचे हैं, उनमें से एक संघमाला के चढ़ावे के लिए आपको अर्पण करता हूँ।" जंगड़ की उदारता देखकर
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