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गिरनार तीर्थ की यात्रा करने गये। बिजली गिरने से टूटे हुए काष्ट के जिन मन्दिर को देखकर उनका दिल द्रवि हो उठा। तुरन्त ही जीर्णोद्धार का कार्य शुरु करवा दिया और तीन वर्ष से वसूल की गयी कर की सारी रकम जीर्णोद्धार में लगा दी। किसी ईर्ष्यालु ने सम्राट सिद्धराज के पास जाकर चुगली खायी। क्रुद्ध सिद्धराज तुरन्त सौराष्ट्र की ओर रवाना हुए। बीच में सोमनाथ महादेव के दर्शन करके वे गिरनार की तलेटी में स्थित वंथली गाँव पहुँचे। मंत्री साजन उनका स्वागत करने सामने आये, परन्तु राजा ने मुँह फेर दिया। साजन मंत्री समझ गये कि जरुर दाल में कुछ काला है। राज्य की रकम जीर्णोद्धार में व्यय की गई है। इस बात से महाराज का मन खिन्न हो गया है। खैर ! कोई बात नहीं, इसका भी कोई रास्ता निकल आयेगा।
मंत्री साजन ने वंथली के आगेवान सेठ को सारी बात बतायी। सेठ ने कुल साढ़े बारह करोड़ सोना मोहरें साजन को दी।
दूसरे दिन सिद्धराज जयसिंह गिरनार की यात्रा करने पधारें। गगनचुंबी, विराट, दूध से सफेद शिखरों को देखकर सिद्धराज के मुँह से शब्द निकल पड़े- “धन्य है उसकी माता को जिसने ऐसे मन्दिर का निर्माण करवाया।' पीछे खड़े साजन मंत्री भी तुरन्त बोले - “धन्य है माता मिनल देवी को जिसने सिद्धराज जैसे पुत्ररत्न को जन्म दिया।” ये वचन सुनकर सिद्धराज ने ज्यों ही पीछे मुड़कर देखा, त्यों ही साजन दंडनायक ने साढ़े बारह करोड़ सोना मोहरों से भरे थाल को दिखाते हुए कहा- "महाराज ! देख लीजिये ये सोना मोहरें और देख लीजिये यह जिनालय । दोनों में से जो पंसद हो, वह रख लीजिये । आपका धन मैंने जीर्णोद्धार में लगा दिया है। इससे आपकी कीर्ति को चार चाँद लग गये है। फिर भी यदि आपको यह पुण्य नहीं चाहिये और ये धन ही चाहिये, तो संघ के आगेवानों ने यह रकम भी जमा करके रखी हैं। आपको जो चाहिये, वह “लीजिए।” सिद्धराज पिघल गया और बोल उठा- “धन्य है मेरे दंडनायक साजन ! तुम्हें धन्य है ! ऐसे जीर्णोद्धार का लाभ देकर तुमने मेरा जीवन धन्य बनाया है । साजन ! पुण्य बंध कराने वाले इस प्रासाद को मैं स्वीकारता हूँ, मुझे ये धन नहीं चाहिये।”
एक साथ सभी ने मिलकर जयघोष किया- “बोलो आबालब्रह्मचारी भगवान नेमिनाथ की जय" खुश होकर सिद्धराज ने मंदिर के निभाव हेतु 12 गाँव भेंट दिये। साजन मंत्री ने 12 योजन की (120 कि.मी. की) विशाल ध्वजा बनाकर उसका एक छोर गिरनार के शिखर पर बांधा एवं दूसरा छोर सिद्धाचल तीर्थ में दादा के शिखर पर बांधा।
आगेवान श्रेष्ठी ने उन साढ़े बारह करोड़ सोना मोहरों को वापस घर न ले जाकर उस धन से वंथली गाँव में दूसरे चार नूतन जिनालयों का निर्माण करवाया।
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